Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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कता में सभी काव्योचित गुणों की स्थिति तो त्रगत पद्य की रचना की जाती है, तब उसे हम अवश्य ही समाविष्ट रहती है, जो काव्य की 'एक चित्रालंकार युत स्तोत्र' की संज्ञा देंगे और यदि
आत्मा को उल्लसित करते हैं, उसमें शिवत्व की एक ही स्तोत्र में अनेक प्रकार के चित्रालंकारों का हि । प्रतिष्ठा करते हैं और अशिवन्व की निवृत्ति के प्रयोग किया जाता हो तो उसे 'अनेक चित्रालंकार
लिए उत्प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही काव्य युत स्तोत्र' की संज्ञा देंगे । जैनाचार्यों ने इन दोनों शरीर को औज्ज्वल्य प्रदान करने वाले वे तत्व भी प्रकारों को अपने स्तोत्रों में अपनाया है। इस दृष्टि स्तोत्रों में पूर्णतः विकसित होते हैं जिन में साहित्य से प्रथम 'एक चित्रालंकार-युत स्तोत्र' की परम्परा
की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अलंकारों का का परिचय || साहचर्य प्राप्त किया जाता है । अलंकार 'शब्दगत, १-स्तुति विद्या : आचार्य समन्तभद्र (0) अर्थगत और शब्दार्थगत' ऐसे तीन प्रकारों में दिगम्बर जैन स्तुतिकारों में आद्य स्तुतिकार व्याप्त हैं। इनमें 'शब्दगत अलंकार' शब्द-स्वरूप
आचार्य श्री समन्तभद्र ने ईसा की द्वितीय शताब्दी की सौन्दयोपयोगी प्रयोगगत व्यवस्था से 'भाषा की
में 'स्तुति विद्या' नामक इस 'जिन-शतक' में परिष्कृत सृष्टि, नाद संसार की परिव्याप्ति, चम
चतुर्विशति जिनों की भावप्रवण स्तुति की है । यह कर त्कार-प्रवणता, भाव-तीव्रता और विशिष्ट अन्त
- पूरी स्तुति 'मुरज बन्धों' के अनेक रूप प्रस्तुत करती हूँ ष्टि का सहज आनन्द' प्राप्त करते हैं।
है। रचना 'गति-चित्रों' की भूमिका पर निर्मित होने ___वस्तु जगत् के प्रच्छन्न भावों को गति प्रदान के कारण चक्र-बन्धों की सष्टि में भी पूर्णतः समर्थ करने वाले इस शब्दालंकार के अनेक भेद-प्रभेद हैं, है। यहाँ तक कि कछ पद्य तो 'अनुलोम-विलोमरूप' उनमें 'चित्रालंकार' भी एक है । इसमें 'चित्र' शब्द
___ में भी पढ़े जाने पर एक पद्य से ही द्वितीय पद्य की 'आश्चर्य और आकृति' के अर्थ में प्रयुक्त है । वौँ सष्टि करते हैं। प्रायः सभी पद्य अनुष्टुप् छन्द में हैं की की संयोजना के द्वारा श्रोता और पाठक दोनों का एक पद्य द्रष्टव्य हैविस्मित कर देना और रचनागत वैशिष्ट्य से आनन्दित कर देना इसका सहज गुण है। इसका
. रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः । ही एक प्रभेद-'आकृतिमुलक चित्रालंकार' है।
भो विभोनशनाजोरुनम्रन विजरामय ॥८६॥ यह विभिन्न आकृतियों में पद्य अथवा पद्यों को यही पद्य चौथे पद के अन्तिमाक्षर से विपरीत लिखने से प्रकट होता है । इस विशिष्ट विधा को पढ़ने पर अन्य पद्य बनता है और स्तोत्रकार आचार्यों ने बहुत ही स्वाभाविक रूप से स्तुति प्रस्तुत करता है। अपनाया है। यहाँ जैन स्तोत्रकारों द्वारा स्वीकृत २-शान्तिनाथ स्तोत्र : आचार्य गुणभद्र चित्रालंकार-मूलक स्तोत्रों में 'आकार-चित्ररूप स्तोत्रों
दिगम्बर सम्प्रदाय के ही आचार्य गुणभद्र ने का संक्षिप्त निदर्शन' प्रस्तुत है।
आठवीं शताब्दी में एक 'शान्तिनाथ-स्तोत्र' की आकार चित्रकार
न-स्तोत्र
रचना की जिसमें 'अष्टदल कमलबन्ध' की रचना की 'आकार-चित्र-काव्य' में किसी एक प्रकार- है जिसमें पंखडियों में ३-३ अक्षर और मध्यकणिका विशेष को ध्यान में रखकर स्तोत्र की अथवा स्तो- में एक अक्षर 'न' श्लिष्ट है । यथा
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वस्तुत: 'चित्रालंकार' के परिवेष में-१-स्वर, २--स्थान, ३-वर्ण, ४---गति, ५-प्रहेलिका, ६-च्युत, ७-गूढ, ८-प्रश्नोत्तर, 8-समस्या-पूर्ति, १०-भाषा और ११---आकार आदि मुख्य भेद एवं इन प्रत्येक के विविध उपभेद हैं । द्रष्टव्य-'शब्दालंकार-साहित्य का समीक्षात्मक सर्वेक्षण, पृ० १२६ से १३४ ।
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
63-69
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ