Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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| समझा । अहिंसा के निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों रूपों पर गहन विचार किया । भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा का सर्वांगीण विवेचन कर हिंसा के पाँच समादान बताए । उन्होंने कहा -- 'अहिंसा निउणादिट्ठा सव्व भूसु संजमो ( दशवैकालिक ६-९) क्योंकि सभी प्राणियों को जीवन प्रिय हैसुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल । 'अप्पिय वहा, पिय जीवणो, जीविउ कामा, सव्वेसि जीवियं पियं' ( आचारांग १-२-७) महावीर की इस अहिंसा संस्कृति को ही आधुनिक युग में महात्मा गाँधी ने अपनाया, विनोबा भावे ने सर्वोदय सिद्धान्त में प्रमुख माना ।
नीग्रो नेता मार्टिन किंग लूथर का उद्धरण भी यहाँ समीचीन होगा 'अहिंसक व्यक्ति की यह मान्यता है कि अपने विरोधी की हिंसा के समक्ष भी वह आक्रामक भाव न रखे अपितु यह सत्प्रयास करे कि उसकी हिंसात्मक या आक्रामक शक्ति का निरसन अहिंसा से संभव हो सकेगा ।' लूथर कहता है 'धिक्कार के बदले धिक्कार वापस लौटाने से धिक्कार का गुणन होता है, अन्धकार कभी अन्धकार दूर नहीं करता - हिंसा से हिंसा की वृद्धि होती है ।' महात्मा गाँधी ने इसको ही सार्वभौम प्रेम और सर्वाधिक दम कहा था । अहिंसा व्यक्ति को अभय करती है और दूसरों को भी । अभयं वै ब्रह्म मा षी - यही उसका मंत्र है । विनोबाजी के शब्दों में इससे मनुष्य सत्यग्राही होता है ।
बेलजियन समाजवादी चिन्तक बार्ट डे लाइट ने लिखा- 'हिंसा का प्राचुर्य जितना अधिक होगा, क्रांति उतनी ही कम । ऐसीमोव का वाक्य है 'हिंसा असमर्थ आदमी का अन्तिम आश्रय है ।' हिंसा और कटुता के मध्य सामाजिक परिवर्तन अपनी शक्ति और अर्थवत्ता समाप्त कर देता है । आज की जनतांत्रिक पद्धति की मूलभूत आवश्यकता हिंसाविहीन शासन तन्त्र से ही संभव है । महात्मा गांधी के अनुसार अहिंसा का विज्ञान ही
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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यथार्थ प्रजातन्त्र की स्थापना का समर्थ साधन है ( यंग इंडिया - मार्च १६, १९२५) हिंसा सामाजिक दुराग्रह है, अहिंसा सत्याग्रह | वर्तमान समय में जनता का विरोध व्यक्ति और सम्पत्ति के विरुद्ध हिंसापरक बन जाता है, ऐसा विरोध सामाजिक परिवर्तन का उपकरण कभी नहीं बन सकता, वह तो अव्यवस्था, तनाव और निराशा को पनपाकर और अधिक हिंसात्मक कार्रवाई का निमित्त बनता है । आधुनिक चिन्ताधारा के अन्य सिद्धान्तों का तथ्यानुशीलन भी करें।
स्वीडन अर्थशास्त्री एडलर कार्लसन ने इस दृष्टि से 'विपर्यस्त उपयोगितावाद' की व्याख्या करते हुए लिखा है - 'हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था का पुनर्निर्माण मनुष्य के कष्टों को कम करने के लिए करना चाहिए । जो आज धनी और समृद्ध हैं उनका आर्थिक स्तर बढ़ाना एक खोखला व सारहीन विचार है । जब तक प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति न हो जाए, कोई भी अधिक समृद्ध न हो इसके लिए आवश्यक है - नैतिक साधन न कि भौतिक उपाय ' ये नैतिक साधन ही व्यक्ति और समाज को शांति लाभ दे सकते हैं । इसी से मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा अब (जूलियस सेगल के शब्दों में ) - मानसिक रोग और पीड़ा से मुक्ति के लिए आत्मपरितोष पर अधिक बल देती है - आत्मोपलब्धि पर, क्योंकि इसी से व्यक्तित्व का स्वस्थ और समीकृत विकास संभव है । मनुष्य के प्रकृत मूल्य बोध से अव्यवस्था को भी सुव्यवस्था में परिगत किया जा सकता है । ल्योन आइजनबर्ग ने इस पर जोर दिया है कि 'हमें मनुष्य की प्रकृति का हो मानवीकरण करना है क्योंकि मानवीय हिंसा सामाजिक दमन का हेतु नहीं उसकी प्रतिक्रिया का परिणाम है ।'
वर्तमान विसंगति यह है कि आज बालक या किशोर वर्ग जब युवावर्ग को संघर्ष और हिंसारत देखता है, जब जातीय नेता स्वार्थ व सत्ता
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साध्वीरत्न ग्रन्थ
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