Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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आदि आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में श्रावक के बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं का विशद् विश्लेषण किया है। आचार्य वसुनन्दि ने अपने ग्रन्थ वनन्दि श्रावकाचार में लिखा है- 'लोहे के शस्त्र तलवार, कुदाल आदि तथा दण्ड और पाश आदि को बेचने का त्याग करना, झूठी तराजू और झूठे मापक पदार्थ नहीं रखना तथा क्रूर प्राणी बिल्ली, कुत्ते आदि का पालन नहीं करना अनर्थ दण्ड- त्याग नामक तीसरा अणुव्रत है ।' (वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक २१६ )
'शारीरिक शृंगार, ताम्बूल, गन्ध और पुष्प आदि का जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग निवृत्ति नामक द्वितीय शिक्षाव्रत कहा जाता है ।
'पर्व, अष्टमी, चतुर्दशी आदि को स्त्री-संग त्याग तथा सदा के लिए अनंग-कीड़ा का त्याग करने वाले को स्थूल ब्रह्मचारी कहा जाता है ।'
इस प्रकार श्रावक धर्म की प्ररूपणा के माध्यम से एक सार्वजनिक आचार संहिता देकर भगवान् महावीर ने अनैतिकता की धधकती हुई ज्वाला में भस्म होते हुए संसार का बहुत बड़ा उपकार किया है । भगवान् महावीर के इस चिंतन के आधार पर ही वर्तमान में आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के रूप में एक नई आचार-संहिता का निर्माण किया है । लगता है कि अब और तब की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं था । इसीलिए भगवान् महावीर के इस सिद्धान्त का उत्तर- भगवान् महावीर का वह चिन्तन इस युग के जनवर्ती आचार्यों ने भी प्रसार किया है । समन्तभद्र, मानस के लिए भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सोमदेव, वसुनन्दि, अमितगति, आशाधर, पूज्यपाद रहा है । [D] अहिंसा की विशिष्टता
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वृत्तियों की स्वस्थता बिना मानव समाज भी स्वस्थ नहीं हो सकता ।
भगवान् महावीर ने व्रतों की जो व्यवस्था दी, उसमें वैयक्तिक हितों के साथ सामाजिक और राजनैतिक हितों को भी ध्यान में रखा गया है । प्रथम व्रत के अतिचारों में मानवतावाद की स्पष्ट झलक है । एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति निर्दयतापूर्ण व्यवहार करे यह मानवीय आचार संहिता का उल्लंघन है । इसलिए मैत्री भावना का विकास करके समग्र विश्व के साथ आत्मीयता का अनुभव करना प्रथम व्रत का उद्देश्य है ।
दूसरे व्रत के अतिचारों में सामूहिक जीवन की समरसता में बाधक तत्वों का दिग्दर्शन कराया गया है । तीसरे व्रत में राष्ट्रीयता की भावना के साथ व्यावसायिक क्ष ेत्र में पूर्ण प्रामाणिक रहने का निर्देश दिया गया है । चौथे व्रत में कामुक वृत्तियों को शान्त करने के उपाय हैं और पाँचवें व्रत में इच्छाओं सीमित करने का संकल्प लेने से अर्था भाव, मँहगाई और भुखभरी को लेकर जनता में जो असन्तोष फैलता है, वह अपने आप शांत हो जाता ।
अपने आपको भगवान् महावीर के अनुयायी मानने वाले जैन लोग भी यदि इस नैतिक आचार संहिता के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें तो वर्तमान समस्याओं को एक स्थायी और सुन्दर समाधान मिल सकता है ।
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यह भगवती अहिंसा प्राणियों के, भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों को आकाशगमन के समान हितकारिणी है, प्यासों को पानी के समान है, भूखों को भोजन के समान है, समुद्र में जहाज के समान है, चौपायों के लिए आश्रम (आश्रय) के समान है, रोगियों के लिए औषधियों के समान है और भयानक जंगल के बीच निश्चिन्त होकर चलने में सार्थवाह के समान सहायक है ।
- भगवान महावीर ( प्रश्नव्याकरण)
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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