Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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- विजयकुमार, शोध छात्र
दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ जैन शिक्षा बनाम आधुनिक शिक्षा
__ मानव-जीवन में शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा का प्रारम्भ कब से हुआ यह निश्चित कर पाना उतना ही कठिन है 12 जितना कि मानव की उत्पत्ति का। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि जबसे मानव है तब से शिक्षा भी है। बच्चा जन्म लेता है और जन्म से मृत्यु पर्यन्त वह हमेशा कुछ न कुछ सीखता ही रहता है । यह 'सीखना' ही शिक्षा है। शिक्षा शब्द 'शिक्ष' धातु से निष्पन्न है। जिसका अर्थ होता है-'सीखना और सिखाना ।' शिक्षा के लिए ज्ञान, विद्या आदि शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। परन्तु जहाँ तक मैं समझता हूँ, 'शिक्षा' और 'विद्या' में अन्तर है। शिक्षा एक प्रक्रिया है जिससे समाज का विकास होता है, प्रगति होती है। किन्तु विद्या के अन्तर्गत चौर्य विद्या भी आती है जिससे व्यक्ति या समाज की प्रगति की अपेक्षा उसके विकास में बाधाएं उत्पन्न होती हैं । यद्यपि मनुष्य की श्रेष्ठता का आधार विद्या ही है। कहा भी गया है-विद्या ददाति विनयम् ।
जैन ग्रन्थ आदिपुराण में विद्या के महत्व को प्रकाशित करते हुए कहा गया है-विद्या ही मनुष्यों को यश प्राप्त कराने वाली है, विद्या ही पुरुषों का कल्याण करने वाली है, विद्या ही सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली है, कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ और कामरूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है । विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ-साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है। अतः कन्या या पुत्र दोनों को समान रूप से विद्योपार्जन कराना चाहिए।
इदं वपूर्वयश्चेदमिदं शीलमनोदशम् । विद्यया चेद्विभुष्येत सफलं जन्मवामिदम् ।। विद्यावान् पुरुषो लोके संमति याति कोविदः । नारी च तद्वती धत्ते स्त्रीसृष्टेरग्रिम पद्म ।। विद्या यशस्करी पुंसां विद्या श्रेयस्करी मता। सम्यगाराधिता विद्यादेवता कामदागिनी ।। विद्या कामदुहा धेनुर्विद्या चिन्तामणिणाम् । त्रिवर्गफलितां सुते विद्या संपत्परम्पराम् ।। विद्या बन्धुश्च मित्रं च विद्या कल्याणकारकम् । सहयापि धनं विद्या, विद्या सर्वार्थसाधनी ॥ तद् विद्याग्रहणं यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवाम् । सत्संब्रहणकालोऽयं युवयोर्वर्ततेऽधुना ।।
-१६/६७-१०२, आदिपुराण
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ।। 00 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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