Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जन आगम साहित्य तथा अन्य जैन साहित्य का अध्ययन अभी । तक जैनधर्म-दर्शन के लिए हुआ उतना अन्य विषय के लिए नहीं हुआ। यह माना कि जैन आगम साहित्य धार्मिक ग्रन्थ हैं। उनमें जैनधर्म और दर्शन विषयक विपुल सामग्री है। इसका अर्थ यह तो नहीं कि
उन ग्रन्थों में अन्य विषयों से सम्बन्धित सामग्री नहीं है। धर्म-दर्शन१ प्रधान ग्रन्थ विषय होते हुए भी इन ग्रन्थों में इतिहास, समाजशास्त्र,
विज्ञान, अर्थशास्त्र, गणित, आयुर्वेद, राजनीति विज्ञान, प्रभृति विषयों से सम्बन्धी ज्ञान पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है । जैन अध्येता-मुनियों ने धर्मदर्शन के अतिरिक्त कुछ कार्य ज्योतिष पर भी किया है। यदि व्यवस्थित रूप से इन आगम ग्रन्थों और इनसे सम्बन्धित अन्य ग्रन्थों का अध्ययन किया जाये तो उपर्युक्त विषयों से सम्बन्धित नई-नई जानकारियाँ मिल सकती हैं । इस लघु निबन्ध में जैन साहित्य में वर्णित दण्डनीति पर संक्षेप में विचार करने का प्रयास किया जा रहा है।
अभी तक जनमानस के सम्मुख इस प्रकार की सामग्री प्रकाश में नहीं * आई है या लाने का प्रयास ही नहीं किया गया है । यदि इस निबन्ध से
कहीं आगे कुछ कार्य होता है तो मैं अपना यह प्रयास सार्थक समझंगा । इस निबन्ध से जैन साहित्य में वर्णित दण्डनीति का विकास और स्वरूप समझने में सहायता मिलेगी।
8 जैन साहित्य में वर्णित üggggggggggggggggggggggggggggggggggggggggggga
प्राचीन भारतीय दण्डनीति
११ अंकपात मार्ग, गली नं० २, काजीबाड़ा उज्जैन (म. प्र.) ४५६००६ BOODDOODDEDDDDDDDDDDDDDDDDDDDDLIDIODDDDDDDDDDD
-डॉ० तेजसिंह गौड़
____ इस प्रकार के संकेत हैं कि जैन साहित्य के अनुसार प्रारम्भ में ३. सतयुग जैसी स्थिति थी। किसी प्रकार का कोई झगड़ा-फसाद नहीं
था । कुलकरों की व्यवस्था के अन्तर्गत सब कार्य सुचारु रूप से चल रहे थे किन्तु जैसे-जैसे कल्पवृक्षों की क्षीणता बढ़ती गई वैसे-वैसे युगलों का उन पर ममत्व बढ़ने लगा । इससे कलह और वैमनस्य की भावना का जन्म हुआ और अपराधों का भी जन्म हुआ । इससे समाज में अव्यवस्था फैलने लगी। जन-जीवन त्रस्त हो उठा और तब अपराधी मनोवृत्ति को दबाने के उपाय खोजे जाने लगे । उसी के परि
णामस्वरूप दण्डनीति का प्रादुर्भाव हुआ। यहाँ यह स्पष्ट करना ) प्रासंगिक ही होगा कि इसके पूर्व किसी प्रकार की कोई दण्डनीति नहीं
थी, क्योंकि उसकी आवश्यकता ही नहीं हुई। जैन साहित्य के अनुसार सर्वप्रथम 'हाकार', 'माकार' और 'धिक्कार नीति' का प्रचलन हुआ। जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
JAs:
१. दण्ड: अपराधिनामनुशासनस्तत्र तस्य वा स एव वा नीतिः तयो दण्डनीति ।
-स्थानांगवृत्ति प. ३६९-४०१
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
- साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Caso
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