Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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विकार भावों से श्रमण की आत्मसाधना में बाधा संस्कृति के साथ उन्हें संघर्ष करना पड़ा। उस
उत्पन्न होती है और वह अपने लक्ष्य से विचलित प्राचीन संस्कृति का मूलतत्व आत्मा था। इस आत्म-2 | हो जाता है, इसी प्रकार कोध-मान-माया-लोभ ये तत्व को अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिए उप
चार कषाय मनुष्य को सांसारिक बन्धन में बांधने निषदों की रचना की गई व और आत्मा के सम्बन्ध १२ वाले मुख्य मनोविकार हैं । आत्मस्वरूपान्वेषी साधक में भिन्न-भिन्न सिद्धान्तों का आविष्कार किया गया,
श्रमण सदैव इन कषायों का परिहार करता है, अतः यह निश्चित है कि आत्मा के सम्बन्ध में अन्य ताकि वह अपनी साधना से विचलित न हो सके। संस्कृतियाँ श्रमण संस्कृति से प्रभावित हैं । चंचल मन और विषयाभिमुख इन्द्रियों के पूर्ण श्रमण संस्कृति और श्रमणत्व की प्राचीनता की नियन्त्रण पर ही श्रमण साधना निर्भर है। आत्म- दृष्टि से कतिपय प्रमाणों पर दृष्टिपात करना आवसाधक श्रमण के श्रामण्य की रक्षा के लिए इस श्यक है, अतः कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैंप्रकार राग-द्वेष आदि विकार भाव, क्रोध आदि
भाव, काध आदि "नाभेः प्रियचिकीर्षयातदवरोधायने मरुदेव्या चार कषायों का परिहार करते हुए इन्द्रियों का धर्मान दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमण नामदमन तथा मन का नियमन नितान्त आवश्यक है। षीणामर्ध्वमंथिना शुक्लया तनुमावततार ।" श्रमणसंस्कृति की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता
___-भागवत पुराण ५/३/२ श्रमण संस्कृति की प्राचीनता और ऐतिहासिकता अर्थात् महाराज नाभि का प्रिय करने की इच्छा के लिए काल गणना के अनुसार यद्यपि कोई काल से उनके अन्तःपुर में महारानी मरुदेवी के निश्चित करना सम्भव नहीं है तथापि इसकी सर्वा- श्रमण ऊर्ध्वगामियों का धर्म प्रकट करने के लिए
धिक प्राचीनता निर्विवाद है। कहा तो यहाँ तक वषभदेव शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए। . ना जाता है कि यह संस्कृति अपने अक्षुण्ण स्वरूप के भागवतकार ने आद्य मनु स्वायम्भुव के प्रपोत्र का साथ अनादिकाल से सरित प्रवाह की भाँति भारत नाभि के पुत्र ऋषभ को निर्ग्रन्थ श्रमणों और
की वसुन्धरा पर प्रवाहित होती हुई मानव मात्र का ऊर्ध्वगामी मनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता , कल्याण करती आ रही है, फिर भी ऐतिहासिक माना है, ऋषभदेव ने ही श्रमणधर्म को प्रकट किया रूप से दृष्टिपात करने पर इस संस्कृति के आद्य था। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमणमुनि बने । प्रवर्तक के रूप में भगवान ऋषभदेव को मान सकते भागवत में यही उल्लेख निलता हैहैं। भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के आदि तीर्थंकर हैं
नवाभवन महाभागा मुनयो केसंसिनः । तथा वेदों व पुराणों द्वारा उनकी ऐतिहासिकता
श्रमणा वातरशना आत्मविद्या विशारदाः ।। सुविदित है । भगवान ऋषभदेव प्रथम श्रमण हैं। अतः श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक की दृष्टि से उनकी
अर्थात् ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से नौ पुत्र जो प्राचीनता ही श्रमण संस्कृति की भी प्राचीनता
बड़े भाग्यवान, आत्मज्ञान में निपुण और परमार्थ | उतनी ही मानी जा सकती है। इसका एक पजल के अभिलाषी थे, वे श्रमण वातरशना मुनि हुए, वे IC प्रमाण यह है कि भारत के उत्तर पश्चिम से प्रविष्ट
अनशन आदि तप करते थे। हुए आर्यों के साथ जो संस्कृति आई उसके पूर्व भी यहाँ श्रमण शब्द से अभिप्राय है-"श्राम्यति । यदि यहाँ कोई संस्कृति थी तो वह श्रमण संस्कृति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।" अर्थात् जो स्वयं
7 थी, बाहर से आए हुए आर्यों का अधिकार सप्तसिंधु तपश्चरण करते हैं वे श्रमण होते हैं । है। तक ही था, पश्चात वे आगे बढ़े तो उत्तर भारत “वातरशना ह वा ऋषयः श्रमण ऊर्ध्वमंथिनो म में अयोध्या, हस्तिनापुर, मगध, काशी की प्राचीन बभूवुः ।"
- तैत्तिरीयारण्यक २/७
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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