Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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GAL उसने रेडियो और टेलीविजन ही खरीदा है तथा या भाव का प्रवृत्त होना, उपयोग है परिणाम या - ST इस समय यह रेडियो चला रहा है, टेलीविजन भाव एक समय में एक ही हो सकता है। अतः एक
नहीं चला रहा है तो यह कहा जायेगा कि उस समय में एक ही उपयोग हो सकता है अर्थात् ज्ञानोधनाढ्य व्यक्ति में क्षमता तो अनेक वस्तुओं को पयोग के समय दर्शनोपयोग और दर्शनोपयोग के प्राप्त करने की है, उपलब्धि उसे रेडियो और समय ज्ञानोपयोग नहीं हो सकता। परन्तु लब्धियाँ । टेलीविजन दोनों की है और उपयोग वह रेडियो ज्ञान-दर्शन गुण ही नहीं, दान, लाभ, भोग आदि । का कर रहा है। यह क्षमता, उपलब्धि और उप- गुणों की भी होती हैं। यही नहीं किसी को भी योग में अन्तर है।
अनेक ज्ञानों की उपलब्धि या लब्धि हो सकती है 12 उपलब्धि और उपयोग के हेतु भी अलग-अलग
परन्तु वह एक समय में एक ही ज्ञान का उपयोग कर
सकता है, जैसा कि कहा है-'मतिज्ञानादिषु चतुर्युत हैं। उपलब्धि या लब्धि, कर्मों के क्षयोपशम या
पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत' तत्त्वार्थ भाष्य रख क्षय से होती है और उपयोग लब्धि के अनुगमन
के अनुगमन अ० १ सूत्र ३१ अर्थात् मतिज्ञान, श्रु तज्ञान, अवधिकरने रूप व्यापार से होता है । जैसा कि उपयोग ज्ञान और मनपर्यायज्ञान इन चार ज्ञानों का उप-5 की परिभाषा करते हुए कहा गया है
योग एक साथ नहीं हो सकता। किसी को भी एक __ उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रतिव्यापार्यते जीवो- साथ एक से अधिक ज्ञान का उपयोग नहीं हो ऽनेनेत्युपयोगः-प्रज्ञापना २४ पद । अर्थात् वस्तु के सकता । कारण कि ये सब ज्ञान, ज्ञान की पर्यायें हैं। जानने के लिये जीव के द्वारा जो व्यापार किया और यह नियम है कि एक साथ एक से अधिक जाता है, उसे उपयोग कहते हैं।
पर्यायों का उपयोग सम्भव नहीं है। इसीलिए कहा "उभय निमित्त वशात्पद्यमान श्चैतन्यानु
है कि पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं, सहवर्ती नहीं। अतः 115
चारों ज्ञानों की उपलब्धि एक साथ हो सकती है विधायी परिणामः उपयोगः इन्द्रिय फलमुपयोग" सर्वार्थसिद्धि अ०२ सूत्र व १८ अर्थात् जो अंतरंग
परन्तु उनका उपयोग क्रमवर्ती होता है सहवर्ती नहीं और बहिरंग दोनों निमित्तों से होता है और चैतन्य
अर्थात् एक समय एक ही ज्ञान होगा और उस ज्ञान
में भी उसके किसी एक भेद का ही ज्ञान होगा दूसरे का अनुसरण करता है ऐसा परिणाम उपयोग है। भेटों का नहीं जैसे अवाय मतिज्ञान का उपयोग अथवा इन्द्रिय का फल उपयोग है अथवा "स्व-पर
होगा तो ईहा, धारणा आदि मतिज्ञान के भेदों का ग्रहण परिणाम उपयोगः" धवलाटीका पु० २ पृ० ४१ अर्थात् स्व-पर जो ग्रहण करने वाला परिणाम
उपयोग नहीं होगा। उपयोग है।
___अभिप्राय यह है कि जैनागमों में ज्ञान-दर्शन O वत्थु णिमित्तो भावो जादो जीवस्स होदि उवओगो।
आदि गुणों के एक साथ होने का निषेध नहीं किया
गया है । निषेध किया गया है दो उपयोग एक साथ -पंचसंग्रह प्रा. १/१६८
होने का। यहाँ तक कि वीतराग केवली के भी G अर्थात् वस्तु ग्रहण करने के लिए जीव के भाव दोनों उपयोग युगपत नहीं माने हैं जैसा कि कहा का प्रवृत्त होना उपयोग है।
है-“सव्वस्स केवलिस्स वि युगपदौ णत्थि उपउपर्यत, परिभाषाओं से यह फलित होता है कि ओगो।" -विशेषावश्यक भाष्य ३०६६ ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से या क्षय से होने यहाँ प्रसंगवशात् यह विचार करना अपेक्षित वाले गणों की प्राप्ति को लब्धि कहते हैं और उस है कि श्वेताम्बर आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर एवं लब्धि के निमित्त से होने वाले जीव के परिणाम दिगम्बर आचार्य श्री वीरसेन आदि ने केवलो के
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ) साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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