Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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एक प्रकार से विचार किया जाय, तो 'सर्वो- महत्ता है-उसको पहचानना, उसके प्रति यथादय' इस छोटे-से पद में जैनधर्म के सभी प्रमुख सम्भव उदारता का व्यवहार करना । “Do unto the सिद्धान्तों का समावेश हो जाता है। कर्तावाद का, others as you would like them to do unto यहाँ निषेध है । कोई सर्वशक्तिमान, सृष्टि का कर्ता you." दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करना धर्ता-हर्ता नहीं है और न ही कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य चाहिए जैसा कि हम अपने लिए अपेक्षा करते हैं । HR का कर्ता-हर्ता है। एक कर्त्तावाद और बह-कर्ता- लिंग, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्रीयता आदि के || वाद दोनों ही अमान्य हैं। इसी प्रकार जैनागम भेद होते हुए भी जीवन का पवित्र अस्तित्व है। जगत् को स्वयंसिद्ध मानता है। यह अनादि है भारतवासी भी उतना ही श्रेष्ठ है जितना अफ्रीका अनन्त है। इसका कभी सर्वथा नाश नहीं होता। अथवा अमरीका देश में रहने वाला। परिवर्तन का क्रम निरन्तर जारी रहता है । “यह
“शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः र
शुद्ध्याऽस्तु तादृशः । नित्यानित्यात्मक है, इसकी नित्यता स्वतःसिद्ध है।
९ जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् ।।13। और परिवर्तन इसका स्वभावगत धर्म है।" जैनदर्शन में 'धर्म' का शब्द का अर्थ अति व्यापक
जैन आचार-शास्त्र यह मानता है कि ऐसा
शुद्र भी जिसके उपकरण व आचरण शुद्ध हों एवं वैज्ञानिक है।
उच्च वर्गों के समान धर्म-पालन करने योग्य है; वह 'ध्रियते लोकोऽनेन' अथवा 'धरति लोकम्
क्योंकि जाति से हीन आत्मा भी कालादिक लब्धि
। मात्र न होकर स्वभाव (Nature, disposition, को पाकर जैनधर्म का अधिकारी होता है। अभिessential quality, attribute) को द्योतित करता प्राय यही हआ कि योग्य गुणों के अस्तित्व पर है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है, अग्नि जाति निर्भर करती है। इसी तथ्य को सातवीं शताब्दी का दाहकता है, आत्मा का धर्म है 'मोहक्षोभविहीन- के प्रसिद्ध संस्कृत-नाटककार भवभूति ने इस प्रकार 15 समतापरिणाम'। इसकी सर्वग्राह्य परिभाषा रत्न- व्यक्त किया हैकरण्ड श्रावकाचार के द्वितीय श्लोक में आचार्य
"शिशुत्वं स्त्रैणं वा भवतु ननु वन्द्यासि जगतम् । समन्तभद्र ने निम्नांकित शब्दों में प्रस्तुत की है
गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिगं न च वयः ।।4 ___ "संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ।" । अर्थात्-जो प्राणियों को संसार दुःख से निकालकर ,
पूजनीया अरुन्धती तथा पिता जनक के सम्मुख उत्तम सुख में पहुँचा दे, वही धर्म है। संसार का ।
सीता भले ही छोटी बालिका सरीखी हों परन्तु प्रत्येक प्राणी सुखोपलब्धि की आकांक्षा रखता है।
वन्दनीय है । लिंग अथवा आयु किसी की महनीयता |
के मापदण्ड नहीं होते । गुणियों में गुण ही पूजा के और दुःख से दूर भागता है। यह भी उसका स्व
CE भाव ही है।
अधिष्ठान होते हैं। अहिंसा जैनदर्शन का महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
सत्य बोलना और दूसरे की सम्पत्ति के अधिइसका अभिप्राय है-प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और कार को स्वीकार करना भी सर्वोदय के पोषक २
१ दृष्टव्य-सर्वोदय तीर्थ, पृ० ८ लेखक-डा० हुकुम-
चन्द भारिल्ल । दष्टव्य-Practical Sanskrit-English Dic- tionary, V. S. Apte, p. 522.
३ दृष्टव्य-सागारधर्मामते, आशाधरः-"भगवान्
महावीर और उनका तत्त्वदर्शन"-१० सं०२६० । ४ दष्टव्य-उत्तररामचरितम्-चतुर्थ अंक, श्लोक
ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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