Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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की जगह स्वस्थ उपयोगी कार्यक्रम देना चाहता है और समाज में जागृति लाना चाहता है, इन सुन्दर स्वप्नों को पूरा करने के लिए उसे समाज के साथ संघर्ष भी करना पड़ता है, परन्तु ध्यान रहे, इस संघर्ष में कटुता न आवे, व्यक्तिगत मान-अपमान की क्षुद्र भावनाएँ न जगें, किन्तु उदार व उदात्त दृष्टि रहे । आपका संघर्ष किसी व्यक्ति के साथ नहीं, विचारों के साथ है । भाई-भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र दिन में भले ही अलग-अलग विचारों के खेमे में बैठे हों, किन्तु सायं जब घर पर मिलते हैं तो उनकी वैचारिक दूरियाँ बाहर रह जाती हैं और घर पर उसी प्रेम, स्नेह और सोहार्द की गंगा बहाते रहें—यह है वैचारिक उदारता और सहिष्णुता | जैनदर्शन यही सिखाता है कि मतभेद भले हो, मनभेद न हो । " मतभेद भले हो मन भर, मनभेद नहीं हो कण भर ।" विचारों में भिन्नता हो सकती है, किन्तु मनों में विषमता न आने दो । विचारभेद को विचार सामंजस्य से सुलझाओ, और वैचारिक समन्वय करना सीखो ।
युवा पीढ़ी में आज वैचारिक सहिष्णुता की अधिक कमी है और इसी कारण संघर्ष, विवाद एवं विग्रह की चिनगारियाँ उछल रही हैं, और युवा शक्ति निर्माण की जगह विध्वंस के रास्ते पर जा रही है।
मैं युवकों से आग्रह करता हूँ कि वे स्वयं के व्यक्तित्व को गम्भीर बनायें, क्षुद्र विचार व छिछली प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर यौवन को समाज व राष्ट्र का शृंगार बनायें ।
धन को नहीं, त्याग को महत्व दो
आज का युवा वर्ग लालसा और आकांक्षाओं से बुरी तरह ग्रस्त हो रहा है। मैं मानता हूँ भौतिक सुखों का आकर्षण ऐसा ही विचित्र है, इस आकर्षण की डोर से बंधा मनुष्य कठपुतली की तरह नाचता रहता है । आज का मानव धन को ही ईश्वर मान
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बैठा है - 'सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते' सभी गुण, सभी सुख धन के अधीन हैं, इस धारणा के कारण मनुष्य धन के पीछे पागल है और धन के लिए चाहे जैसा अन्याय, भ्रष्टाचार, अनीति, हिंसा, तोड़फोड़, हत्या, विश्वासघात कर सकता है । संसार में कोई पाप ऐसा नहीं जो धन का लोभी नहीं करता हो ।
इच्छाएँ, अपेक्षायें इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि आज के जीवन में मनुष्य की आवश्यकताएँ, उनकी पूर्ति के लिए धन की जरूरत पड़ती है, इस लिए मनुष्य धन के लोभ में सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। कुछ युवक ऐसे भी हैं, जिनमें एक तरफ धन की लालसा है, भौतिक सुख-सुविधाओं की इच्छा है तो दूसरी तरफ कुछ नीति, धर्म और ईश्वरीय विश्वास भी है। उनके मन में कभीकभी द्वन्द्व छिड़ जाता है, नीति-अनीति का, न्यायअन्याय का, धर्म-अधर्म का, प्रश्न उनके मन को मथता । है, किन्तु आखिर में नीतिनिष्ठा, धर्मभावना दुर्बल हो जाती है। लालसायें जीत जाती हैं । वे अनीति व भ्रष्टाचार के शिकार होकर अपने आप से विद्रोह कर बैठते हैं ।
युवावर्ग आज इन दोनों प्रकार की मनःस्थिति में है । पहला- जिसे धर्म व नीति का कोई विचार
नहीं है वह उद्दाम लालसाओं के वश हुआ बड़े से बड़ा पाप करके भी अपने पाप पर पछताता नहीं ।
दूसरा वर्ग - पाग करते समय संकोच करता है कुछ सोचता भी है, किन्तु परिस्थितियों की मजबूरी कहें या उसकी मानसिक कमजोरी कहें - वह अनीति का शिकार हो जाता है ।
एक तीसरा वर्ग ऐसा भी है - जिसे हम आटे में नमक के बराबर भी मान सकते हैं जो हर कीमत पर अपनी राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, धर्म एवं नैतिकता की रक्षा करना चाहता है और उसके लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी भी करने को तैयार रहता है। ऐसे युवक बहुत ही कम मिलते हैं; परन्तु अभाव नहीं है ।
चतुर्थं खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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साध्वीरत्न ग्रन्थ
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