Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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तत्त्वों में है । संसार के समस्त मतभेद, वैर, वैम- है । विशाल परिप्रेक्ष्य में, यही वैचारिक वैमत्य, Mi नस्य, कथनी और करनी के अन्तर के कारण उत्पन्न टकराहट को-स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा को, विवाद
होते हैं तथा जर, जन और जमीन अर्थात् स्त्री, और युद्ध को जन्म देता है। परन्तु जिस प्रकार कोई धन और भूमि को लेकर पनपते हैं। व्यक्तिगत व्यक्ति पूर्ण नहीं, निर्दोष नहीं, उसी प्रकार कोई भी उदारता, पारस्परिक विश्वास एवं सुरक्षा भावना मत, धर्म, दर्शन सर्वांगसम्पन्न नहीं। सभी एकाँगी आज मानव-जीवन से लुप्तप्राय हो गई है। इन हैं, अपूर्ण हैं । परन्तु जैनधर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त कल्याणमयी भावनाओं का शुभारम्भ, परिवार, सभी टकराहटों को आत्मसात् कर लेता है । सहिकुटुम्ब और प्रतिवेशी से लेकर विस्तार तो समाज, ष्णुता के शीतल जल से अभिसिंचित् करता है जैन राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक अपेक्षित है। विचारधारा से पादप केभौतिक सुख-सुविधाओं और आवश्यकताओं
"अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं, (ER) का अन्त नहीं । इच्छा-पूर्ति की अन्धी दौड़ ने मानव
वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । जीवन से सुख-शान्ति को कोसों दूर भगा दिया है। आकांक्षिणः स्यादिति वै निपातो, आवश्यक है ऐन्द्रिक सुख की लालसाओं और
गुणानपेक्षे नियमे पवादः ।। सम्पत्ति के अधिग्रहण पर संयम रखना। इससे
अर्थात्-जिस प्रकार 'वृक्षाः' यद पद अनेक सामाजिक न्याय को बल मिलेगा और उपभोग्य
वृक्षों का वाचक होते हुए भी स्वभाव से ही पृथक वस्तुओं के वितरण की समस्या सुलझेगी। समाज
एक वृक्ष का भी द्योतन करता है, इसी प्रकार प्रत्येक के अल्प प्रतिशत व्यक्ति अधिकांश सम्पत्ति के ठेके
पद का वाच्य एक तथा अनेक दोनों होते हैं । एक दार बनकर बैठ जाते हैं जिससे दुर्बल वर्ग प्रति
धर्म का कथन करते समय सहवर्ती दूसरे धर्म का दिन की जीवनोपयोगी वस्तुएँ भी नहीं जुटा पाता।
लोप होने न पावे इस अभिप्राय से स्याद्वादी अपने समाज में असन्तुलन बढ़ता है, अपराधिक प्रवृत्तियाँ
प्रत्येक वाक्य के साथ स्यात्कार का प्रयोग करता है। भी पनपती हैं । सन्तोषमूलक अपरिग्रह का पालन
यह निपात गौणीभूत धर्म की अपेक्षा न करते हुए सरकर कानून बनाकर नहीं करवा सकती।
भी उसका सर्व लोप होने नहीं देता है। 'कबहुँक हौं यह रहनि रहौंगो।
ईश्वर जगत् का निर्माता नहीं है-किसी को Cil यथालाभ सन्तोष कबहुँ काहू से कुछ न चहौंगो।' हानि-लाभ पहुँचाने से उसे कोई सम्बन्ध नहीं। वह
यथालाभ सन्तोष पद का प्रयोग कर तलसी पूजनीय है उन गुणों के कारण जिन्हें हम अपने ने अपरिग्रह के महत्व को रेखांकित कर दिया है। जीवन में उतारकर तत्सदृश शुद्धात्म स्वरूप प्राप्त
कर सकते हैं। स्कार, परिवेश, पालन-पोषण, खानपान
___महावीर स्वामी से पूर्व तेईस तीर्थकर जलवायु, भौगोलिक स्थिति, शिक्षा, व्यक्तिगत अनु
हुए। सभी सामान्य जन-क्षत्रिय सन्तान-सांसाभवादि जनेक तत्वों से प्रभावित होती है मनुष्य की
रिक क्षुत्पिपासा, शीतोष्ण, मायामोह की सीमाओं चिन्तन प्रक्रिया। यही कारण है कि एक माता-पिता
__ में बँधे हुए थे। उन्होंने अपनी तपस्या के द्वारा केवलकी अनेक सन्तानों का भी सोचने का ढंग-किसी घटना विशेष के प्रति प्रतिक्रिया पृथक्-पृथक् होती
__ ज्ञान प्राप्त किया-तीर्थकरत्व प्राप्त किया अपने___ अपने युग की अपेक्षाओं के अनुकूल । स्पष्ट है, कि
(शेष पृष्ठ ३१० पर देखें) १ दृष्टव्य जैनधर्मसार श्लोक संख्या ४०४
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ doesxx8
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