Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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बताया गया है जो दोनों उपयोगों के युगपत् न मानने पर ही सम्भव है ।
यहाँ पर यह बात विशेष ध्यान देने की है कि जैनागमों में कहीं यह नहीं कहा है कि ज्ञान के समय दर्शन नहीं होता है और दर्शन के समय ज्ञान नहीं होता है प्रत्युत यह कहा है कि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों उपयोग किसी भी जीव को एक साथ नहीं होते। क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण आत्मा के लक्षण हैं । अतः ये दोनों गुण आत्मा में सदैव विद्यमान रहते हैं । इनमें से किसी भी गुण का कभी अभाव नहीं होता है । यदि ज्ञान या दर्शन गुण का अभाव हो जाये तो चेतना काही अभाव हो जाये; कारण कि गुण के अभाव होने पर गुणी के अभाव हो जाने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है । अतः चेतना में ज्ञान और दर्शन ये दोनों गुण सदैव विद्यमान रहते हैं । परन्तु उपयोग इन दोनों गुणों में से किसी एक ही गुण का होता है।
उपर्युक्त तथ्य से यह भी फलित होता है कि ज्ञान गुण और ज्ञानोपयोग एक नहीं है तथा दर्शन • गुण और दर्शनोपयोग एक नहीं है, दोनों में अन्तर है जैसा कि षटखंडागम की धवला टीका पु० २, पृष्ठ ४११ पर लिखा हैः- स्व पर ग्रहण करने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं । यह उपयोग ज्ञान मार्गणा और दर्शनमार्गणा में अन्तर्भूत नहीं होता है । इसी प्रकार पन्नवणा सूत्र में भी ज्ञान और दर्शन द्वार के साथ उपयोग द्वार को अलग से कहा है । तात्पर्य यह है कि गुणों की उपलब्धि का होना और उनका उपयोग करना ये दोनों एक नहीं हैं, दोनों में अन्तर है । जैसा कि कषायपाहुड में कहा
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दंसणणाणावर णक्खए समाणम्मि कस्स होइ पुव्वयरं । होज्ज समोउप्पाओ दुवे णत्थि उवजोगा || १३७|| - कषायपाहुड पुस्तक (१) पृष्ठ ३२१
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
Jainutation Internati
अर्थात् दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय एक साथ होने पर पहले केवलदर्शन होता है या केवलज्ञान । ऐसा पूछा जाने पर यही कहना होगा कि दोनों की उत्पत्ति एक साथ होती है पर इतना निश्चित है कि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग ये दो उपयोग एक साथ नहीं होते हैं ।
इस गाथा से यह फलित होता है कि दोनों आवरणीय कर्मों के एक साथ क्षय होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनों गुणों का प्रकटीकरण तो एक साथ होता है और आगे भी दोनों गुण साथ-साथ ही रहते हैं, परन्तु प्रवृत्ति किसी एक गुण में होती है । गुण लब्धि रूप में होते हैं। और उस गुण में प्रवृत्त होना उसका उपयोग है ।
आशय यह है कि उपलब्धि और उपयोग ये अलग-अलग हैं। अतः इनके अन्तर को उदाहरण से समझें :
मानव मात्र में गणित, भूगोल, खगोल, इतिहास, विज्ञान आदि अनेक विषयों के ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है परन्तु किसी ने गणित व भूगोल इन दो विषयों का ज्ञान प्राप्त किया है तो उसे इन दोनों विषयों के ज्ञान की उपलब्धि है यह कहा जायेगा और अन्य विषयों के ज्ञान की उपलब्धि उसे नहीं है यह भी कहा जायेगा । गणित और भूगोल इन दो विषयों में से भी अभी वह गणित का ही चिन्तन या अध्यापन कार्य कर रहा है, भूगोल के ज्ञान के विषय में कुछ नहीं कर रहा है तो यह कहा जायेगा कि यह गणित के ज्ञान का उपयोग कर रहा है. और भूगोल के ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहा है ।
परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे अभी भूगोल के ज्ञान का अभाव है । उसे इस समय भी भूगोल का ज्ञान उपलब्ध है, इतना अवश्य है कि इस समय उसका उपयोग नहीं कर रहा है । एक दुसरा उदाहरण और लें -- एक धनाढ्य व्यक्ति में अनेक वस्तुओं के क्रय करने की क्षमता है परन्तु
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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