Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जान संयम साधना में सफल होते हैं और न वे शिव तीन यामों (महावतों) का विधान
पथ के पथिक बनकर मुक्त होते हैं क्योंकि संयम आचारांग में महाश्रमण महावीर प्ररूपित तीन साधना की सफलता में सबसे बड़ी बाधा वक्रता एवं याम का विधान भी है। किन्तु किस काल में तीन जड़ता की ही है।
यामों का परिपालन प्रचलित रहा यह स्पष्ट ज्ञात चार यामों (महावतों) का विधान
नहीं होता। अर्हन्त अजितनाथ से लेकर अर्हन्त पार्श्वनाथ
तीन याम तक के सभी संघों में अधिक जनसंख्या ऋज प्राज्ञ प्रथम याम-अहिंसा महाव्रत भजनों की ही रही थी। वे प्राज्ञ (विशेषज्ञ) होते हुए द्वितीय याम-सत्य महाव्रत भी ऋजु सरल (स्वभावी होते) थे। विशेषज्ञ होकर
तृतीय याम-अपरिग्रह महाव्रत । सरल होना अति कठिन है। यह उस काल की शिष्टता ही थी।
अस्तेय महाव्रत और ब्रह्मचर्य महाव्रत ये दोनों
अपरिग्रह महाव्रत के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिए उस मध्यकाल में ऋजु-जड़ जन और वक्र-जड़ गए थे। जन भी होते थे किन्तु अत्यल्प ।
इस युग के अनुरूप महाव्रतों का विधान ऋजु-प्राज्ञ श्रमण गणों की संयम-साधना अधिक से अधिक सफल होती थी और वे उसी भव में या
यदि इस युग के श्रमण जहावाई तहाकारी' छ भवों की सतत संयम-साधना मानो याने जैसा कथन वैसा आचरण करना चाहें तो जाते थे। अतएव ऋजु-प्राज्ञ श्रमणों के लिए चार उनके लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य इन तीनों का यामो (महाव्रतों) की परिपालना का विधान था। पालन हा पचात हा उस युग में "याम" शब्द महाव्रतों के लिए प्रचलित इस युग के कुछ ऋजु प्राज्ञ श्रमण पाँचों महाथा ।
व्रतों का परिपूर्ण पालन अवश्य करते हैं । प्रचलित चार याम
परम्परा के अनुसार ऐसा मान लेना अनुचित भी
नहीं है किन्तु नीचे लिखी प्रवृत्तियों का जब तक प्रथम याम-अहिंसा महाव्रत
पूर्ण त्याग न हो तब तक आगमानुसार पाँचों महाद्वितीय याम-सत्य महाव्रत
व्रतों का या सम्पूर्ण जिनाज्ञा का पालन कैसे सम्भव तृतीय याम-अस्तेय महाव्रत
हो सकता है। चतुर्थ याम-अपरिग्रह महाव्रत
(१) प्रतिबद्ध उपाश्रयों में ठहरना अर्थात् उस मध्य युग में ब्रह्मचर्य महाव्रत, अपरिग्रह
- गृहस्थों के घरों की छत से संलग्न उपाश्रयों में महाव्रत के अन्तर्गत समाविष्ट मान लिया गया था
९ ठहरना, क्योंकि वे प्राज्ञ होने के कारण संक्षिप्त कथन से (२) लेखों का, निबन्धों का ग्रन्थों का मुद्रण हेतु भी आशय को समझ लेने वाले थे।
संशोधन-सम्पादन करना,
। १. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २० उद्देशक ८
२. आचारांग श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन ८, उद्देशक १ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 0640 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ@Gy
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