Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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हैं। कृतकृत्य भगवान ऋषभदेव आषाढ मास के हे आदरणीय अश्रमण आप श्रमणरहित, दूसरों कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ के द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, मृत्युकरके प्रजापति कहलाये।
वजित, रोगरहित, जरारहित और उत्क्षेपण गतिजैन मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव ने युक्त हो, किंच आप भेदक (भेदविज्ञानी) किन्तु कर्म की भाँति धर्म का भी उपदेश दिया और जगत दूसरों से भेदन न किये जा सकने वाले बलवान, में उसका प्रचलन किया। उस समय कृतयुग था तृष्णारहित और निर्मोह हो । जब लोगों की प्रवृत्ति धर्म की ओर अधिक थी। उपर्युक्त सूक्त का अभिप्राय यह है कि जिस भार जैन श्रमणमुनियों का सर्वत्र विहार था। यही बात चारित्र से मनुष्य श्रमण कहलाता है उससे मुक्त भागवतकार भी कहते हैं। भागवत के उपर्युक्त अर्थात् आत्मस्थ होने पर वह श्रमण कहलाता है, श्लोकों में प्रायशः शब्द विशेष उल्लेखनीय है । उसका शिथिलाचार रहित तथा मृत्यू, भय, बुढ़ापा, तृष्णा आशय यही है कि अधिकांश श्रमणों में ये गुण पाये और लोभ से रहित कोई भी श्रमण, तपस्वी अन्तजाते थे। प्रायः सभी श्रमणों का जीवन निष्पाप मुहर्त से अधिक काल तक आत्मध्यान के बिना था और उनके जीवन में अनाचार नहीं था। इस नहीं रह सकता. किंच श्रमविष्णवः (उत्क्षेपणावक्षेपप्रकार ऋषभदेव काल की जनता के आचार-विचारों णगत्युपेता) बार-बार ऊपर नीचे गुणस्थान में के सम्बन्ध में दोनों परम्परा एकमत हैं। चढ़ता उतरता रहता है । इसके अतिरिक्त निर्मोही,
ब्रह्मोपनिषद में भी परब्रह्मा का अनभव करने निस्पृह, दुखों और संशयों से रहित, इन सब में वाले की दशा का जो वर्णन आया है उससे भी बलवान होने से वह आदर योग्य और सबसे भिन्न पूर्वोक्त आशय की पुष्टि होती है, यथा
होता है। "श्रमणो न श्रमणस्तापसो न तापसः एकमेव वैदिक काल में श्रमण शब्द का अधिक महत्व । तत्परं ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।"
रहा है, वैयाकरण अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही -ब्रह्मोपनिषद, पृ० १५१ किमी शब्द विशेष के लिए नियम बनाते थे, अन्यथा श्रमण शब्द सर्वप्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल
नहीं। श्रमण शब्द के सम्बन्ध में व्याकरण ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इस कथा में भी वृहदारण्य- में विशेष नियम उपलब्ध होता है, इससे श्रमण कोपनिषद् की भाँति ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति का
शब्द का महत्व स्वतः सिद्ध होता है । सर्वप्रथम वर्णन किया गया है।
शाकटायन में ऐसा नियम बनाया गया है__तृदिला अतृदिलासो अद्रयो श्रमण अश्रुथिता
"कुमारः श्रमणादिना" -शाकटायन २/१/७८ अमृत्यवः । अनातुराः अजराः स्थामविष्णावः सपविमो अतृपिता अतृष्णजः ॥
श्रमण शब्द के साथ कुमार और कुमारी शब्द 10 -ऋग्वेद १०/८/६४/११ की सिद्धि विषयक यह सूत्र है, उस काल में कुमार | सायण-"अश्रमणाः श्रमणवर्जिताः अश्रुथिताः श्रमण ऐसे पद लोक प्रचलित थे। यह शब्द संज्ञा अन्यैरंशिथिलीकृताः अमृत्यवः अमारिताः अनातुराः उस तापसी के प्रचलित थी जो कुमारी अवस्था में अरोगाः अजराः जरारहिताः स्थमवय । किंच अप- श्रमणा (आर्यिका) बन जाती थी । श्रमणादि गणविष्णवः उत्क्षेपणवक्षेपणगत्युपेताः हे आवाणः पाठ के अन्तर्गत कुमार प्रवजिता, कुमार तापसी तृदिलाः अन्येषां भेदकाः अतृदिलासः स्वयमन्येना- जैसे विभिन्न शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस भिन्नाः सुपविसः सुबलाः अतृषिताः तृषारहिताः समय कुमारियाँ प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं, यह लोक अतृष्णजः निःस्पृहा भवय ।"
विश्रुत था। भगवान ऋषभदेव की ब्राह्मी और चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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