Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जाती है अथवा कहना चाहिए कि संस्कार किए संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है, दूसरे रूप में NI जाने पर वस्तु अपने में निहित उत्कर्ष को अभिव्य- इसे जैन संस्कृति भी कहा जा सकता है । क्त करने का अवसर प्राप्त करती है, संस्कार किए
श्रमण संस्कृति अथवा जैन संस्कृति में मानवता ॐ जाने पर ही खनिज सुवर्ण शुद्ध स्वर्ण बनता है। के वे उच्च आदर्श, आध्यात्मिकता के वे गूढ़तम मनुष्य भी संस्कृति के द्वारा अपनी आत्मा और
रहस्यमय तत्व तथा व्यावहारिकता के वे अकृत्रिम शरीर का संस्कार परिष्कार कर अपने उच्चतम
- सिद्धान्त निहित हैं जो मानव मात्र को चिरन्तन सत्य ध्येय और संकल्पों को पूर्ण करने के लिए दिशा ।
ते व साक्षात्कार कराते हैं। मानवता के प्राप्त करता है। एक कलाकार अनगढ़ पाषाण में हित साधन में अग्रणी होने के कारण यह मानव छैनी और हथौड़े की सहायता से वीतराग प्रभु का संस्कृति भी कहलाती हैं। मुद्रा अंकित कर देता है। एक चित्रकार विविध रंगों और तूलिका की सहायता से केनवास पर श्रमण और श्रामण्य सुन्दर चित्र बना देता है। इसी प्रकार संस्कृति भी "श्रमणस्य भावः श्रामण्यम-अर्थात श्रमण मनुष्य के अंतस्थ सौन्दर्य को प्रकट कर देती है। के भाव को ही श्रामण्य कहते हैं, संसार के प्रति का यही मनुष्य के आचार-विचार को बनाती और मोह या ममत्वभाव का पूर्णतः त्याग अथवा संसार : संवारती है। ये आचार-विचार और व्यवहार से पूर्णतः संन्यास ग्रहण करना ही श्रामण्य कहलाता संस्कृति के मूल स्रोत के साथ संबद्ध होकर उसका है और इस प्रकार के श्रामण्य से युक्त पुरुष श्रमण परिचय देते हैं।
कहलाता है, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका
है कि निर्गन्थ जैन मुनि ही श्रमण होता है। श्रमण अतः जब हम संस्कृति का सम्बन्ध श्रमण सन्त के साथ करते हैं तो हमारे सामने श्रमण धर्म और
पंच महाव्रतों का पालक एवं समस्त सांसारिक उसके आचार-विचार स्पष्ट हो उठते हैं। श्रमण शब्द
वृत्तियों का परित्यक्ता होता है । वह निष्कर्मभाव KY के अभिप्राय को स्पष्ट करने की दृष्टि से कहा गया
की साधना से पूर्ण एकाग्रचित्तपूर्वक आत्मचिन्तन है-"श्राम्यति तपः क्लेशं सहते इति श्रमणः ।"
में लीन रहता है, आडम्बरपूर्ण व्यावहारिकता एवं अर्थात्-जो स्वयं तपश्चरण करते हैं तथा क्लेश क्रिया-कलापों के लिए उसके जीवन में कोई स्थान को सहते हैं वे श्रमण कहलाते हैं, अतः श्रमण शब्द
नहीं रहता । सम्पूर्ण बाह्य जगत उसके लिए अन्धका सामान्य अर्थ है निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही) मुनि और
काराच्छन्न हो जाता है किन्तु उसका अन्तःकरण A श्रमण संस्कृति का अर्थ हआ वह संस्कृति जिसका
आत्मज्योतिपुंज से आलोकित हो जाता है जिससे
वह संसार के समस्त भावों को अविच्छिन्न रूप से || सम्बन्ध निर्ग्रन्थ जैन मुनि से है तथा जिसके प्रस्तोता व प्रवर्तक निग्रन्थ जैन मनि हैं. और भी देख सकता है । विशुद्ध, परिपूर्ण एवं अव्याहत केवल
" ज्ञान उसमें सम्पूर्ण आत्मप्रदेश को आलोकित करता अधिक स्पष्ट रूप से इसे इस प्रकार समझा जा सकता है-जिन आचार-विचार, आदर्शों और व्य
हुआ संसार की समस्त सीमाओं व बाधाओं को
लांघकर श्रमण को त्रिकालदर्शी बनाकर परम वहारों का आचरण व उपदेश निर्ग्रन्थ जैन मुनियों
उत्कृष्ट अर्हत् पद पर आसीन कर देता है । यही के द्वारा किया गया है, वह श्रमण संस्कृति
उसके श्रामण्य की चरम सीमा है। - भगवान ऋषभदेव प्रथम निम्रन्थ मुनि हैं और वे ही प्रथम श्रमण हैं, अतः उनके द्वारा आचरित श्रमण के जीवन में संयम एवं तपश्चरण के और उपदिष्ट जिन आचार-विचार, व्यवहार और आचरण का विशेष महत्व है, उसका संयमपूर्ण आदर्शों का प्रचार-प्रसार व प्रचलन हुआ वही जीवन उसे सांसारिक वृत्तियों की ओर अभिमुख ।
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
O साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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