Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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शाा वर्गों की विविधात्मक परम्पराएँ। इन सभी कारणों आरम्भ से ही भारतीय संस्कृति के मूल में ADS
के मूल में वह उच्च आध्यात्मिक आदर्श, जो मानव समानांतर दो विचारधाराएँ प्रवाहित होती रही हैं- 12 2 को वस्तुतः मानव बनने की प्रेरणा देता है और १. वैदिक विचारधारा और २. श्रमण विचारधारा। हि अपने वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक जहाँ श्रमण विचारधारा ने भारतवासियों को
जीवन को समुन्नत करने के लिए सतत् रूप से प्रेरित आंतिरक शुद्धि और सुख-शांति का मार्ग बतलाया करता है।
वहाँ ब्राह्मणों ने बाह्य सुख-शांति और बाह्य शुद्धि विचारों की विविधता, दृष्टिकोण की भिन्नता को विशेष महत्व दिया। श्रमणों ने जहाँ लोगों को IDS तथा मान्यता व परम्पराओं की अनेकरूपता के निर्थ यस एवं मोक्ष का मार्ग बतलाया, ब्राह्मणों ने - कारण भारत ने समय-समय पर अनेक संस्कृतियों वहाँ लौकिक अभ्युदय के लिये विभिन्न उपाय अपनाको जन्म दिया है जो एक ही वृक्ष के नीचे अंकुरित, कर लोगों का मार्गदर्शन किया। श्रमण विचारधारा पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। यही कारण है कि ने व्यक्तिगत रूप से आत्मकल्याण की भावना से 8
संस्कृतियों की विविधता होते हुए भी उनमें आश्चर्य- लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। 'जिओ और न 4 जनक एकरूपता है। यद्यपि सभी संस्कृतियों में और जीने दो' के व्यावहारिक रूप में विश्व को
लक्ष्य रूप में मानवता का हित सन्निहित है और यह अहिंसा का सन्देश देकर प्राणिमात्र के प्रति समता सर्वोपरि है, तथापि सामान्यतः भारतवर्ष में प्रच- भाव का अपूर्व आदर्श जन सामान्य के समक्ष प्रस्तुत लित समस्त संस्कृतियों का स्वरूप-विभाजन संक्षेप किया। में दो रूप से किया जा सकता है-सामाजिक और दूसरी ओर ब्राह्मण वर्ग ने वर्ण व्यवस्था के आध्यात्मिक।
द्वारा न केवल समाज में फैली अव्यवस्था अपितु . भारतीय संस्कृति का सामाजिक स्वरूप विभिन्न सामाजिक विरोधों को दूर कर धामिक काल वह है जो विविध कलाओं, विज्ञान, अनुसन्धान मान्यताओं एवं क्रिया-कलापों को दृढ़मूल किया। एवं आविष्कारों से निरन्तर परिपोषित एवं
श्रमण वर्ग सदा अपनी आत्मा का निरीक्षण करने के होता रहता है। संस्कृति का इससे भिन्न अर्थात् कारण अन्तर्दृष्टि बना रहा जबकि ब्राह्मण विचार- ११ आध्यात्मिक स्वरूप वह है जो प्राणिमात्र के कल्याण धारा ने शरीर के संरक्षण को विशेष महत्व दिया। की महान भावना से परिपूर्ण तथा जीवन की सार्थ- जहाँ श्रमण इसे आदर्श देते रहे वहाँ ब्राह्मण इसे ||५ कता के लिये विविध धार्मिक अनुष्ठानों से युक्त है। विधान के द्वारा पूर्ण करते रहे । जहाँ श्रमण विचार
संस्कृति के इस आध्यात्मिक पक्ष का साकार रूप है प्रवाह वास्तविकता को सिंचित करता रहा वहाँ || श्रमणसंस्कृति, जिममें इहलौकिक, भौतिक व ब्राह्मण समुदाय व्यावहारिक कार्यकलापों से जीवन A
क्षणिक सुखों के लिये न कोई स्थान है और न कोई को पूर्ण बनाते रहे। इस आत्मा और शरीर, आदर्श इत्र
मान्यता। श्रमणसंस्कृति का समग्र स्वरूप पूर्णतः और विधान, निश्चय और व्यवहार के अभूतपूर्व | हा अहिंसात्मक, अपरिग्रहात्मक व अनेकान्तात्मक है सम्मेलन से ही भारत की सर्वलोक कल्याणकारी IN
जिससे जगत में हिंसा का तांडव बन्द होकर सम्पूर्ण संस्कृति का निर्माण हुआ है और इसी के परिणाम| पापाचार निर्मूल हो, सामाजिक विषमता व अराज- स्वरूप इसे चिरंतन स्थिरता प्राप्त हुई है। किता दूर हो तथा विश्व में स्थायी सुख, शांति व
संस्कृति और श्रमण शब्द का अर्थ समता का साम्राज्य स्थापित हो । आसक्ति, परिग्रह, हिंसा और दुराग्रह के लिये इस संस्कृति में कोई व्याकरण के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है तु स्थान नहीं है।
संस्कार-सम्पन्नता । संस्कार से वस्तु उत्कृष्ट बन K.
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चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम | साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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