Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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'प्रत्याख्यानावरण' कषाय नामक संस्कार का तीन स्थितियों में से स्वल्प-सम्यक्त्व वाले जीवों के वेग, पाँचवें गुणस्थान से आगे नहीं होता जिससे लिए 'दूसरा'-'सासादन'-गुणस्थान; अर्ध-सम्यक्त्व 12 चारित्र-शक्ति का विकास और अधिक बढ़ता है। और अर्ध-मिथ्यात्व वाले जीवों के लिए 'तीसरा' इस कारण आत्मा, बाह्य इन्द्रिय भोगों से विरत 'मिश्र' गूणस्थान; और विशुद्ध-सम्यक्त्व किन्तु होकर 'श्रमण'-'संन्यासी' हो जाता है। यह स्थिति चारित्ररहित जीवों के लिये 'चौथा'-'अविरत छठवें गुणस्थान की भूमिका की सर्जिका बनती है। सम्यग्-दृष्टि' गुणस्थान है । इस गुणस्थान में दर्शनछठवें गुणस्थान में चारित्र-शक्ति को मलिन करने मोह शक्ति उपशमित हो जाती है, अथवा सर्वथा वाले 'संज्वलन' कषाय रूप संस्कारों के रहने से क्षय हो जाती है। लेकिन, चारित्र-मोह शक्ति बनी यद्यपि चारित्र-शक्ति का विकास दबता तो नहीं, रहती है। इसलिये, ये चारित्र-रहित सम्यग्दृष्टि- INK किन्त स्वरूप-लाभ की स्थिरता में व्यवधान आते जीव 'चौथे'-अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले रहते हैं। आत्मा, जब इन संस्कारों को अधिक-से- जीव कहलाते हैं।
अधिक निर्बल कर देती है, तब 'उत्क्रांतिपथ' की जो जीव 'सम्यक्त्व' और 'चारित्र' सहित हैं, Lil सातवीं आदि भूमिकाओं (गुणस्थानों) को उलाँघ
उनके भी दो प्रकार हैं-१-एकदेश (आंशिक) कर ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाती है।
चारित्र के पालक; और २-सर्वदेश (सम्पूर्ण) चारित्र ) बारहवें गुणस्थान में 'दर्शन' और 'चारित्र' शक्ति के
का पालन करने वाले। इन दोनों भेदों ८ प्रतिबंधक-संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। अतः
में से 'एकदेशचारित्र' का पालन करने वाले जीवों इन दोनों ही शक्तियों का पूर्णरूपेण विकास यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में हो जाता है, तथापि शरीर का
का ग्रहण करने के लिए 'पाँचवाँ'- 'देशविरतगुण
स्थान' है। सद्भाव, उस आत्मा के साथ बना रहता है। जबकि चौदहवें गुणस्थान में शरीर का भी सम्बन्ध नहीं 'सम्पूर्ण चारित्र का पालन करने वाले जीव भी रह जाता। अतः चारित्र शक्ति, अपने यथार्थ रूप में दो श्रेणियों के हैं-१-प्रमादवश 'अतिचार' यानी विकसित होकर सदा-सर्वदा के लिए एक-सी बन 'दोष'-संपृक्त हो जाने वाले; और २-प्रमाद-रहित जाती है। इसी अवस्था को 'मोक्ष' कहते हैं। निर्दोष'-चारित्र का पालन करने वाले । इनमें से
गुणस्थान चौदह ही क्यों ?:-सामान्यतया प्रमादवश-अतिचार-संपृक्त सर्व-संयमी का ग्रहण ||K आध्यात्मिक दृष्टि से संसारी जीवों के दो प्रकार कराने वाला 'छठा'-यानी 'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान हैं-१-मिथ्यावादी (मिथ्यादृष्टि)-अर्थात्, गाढ- है। जबकि प्रमादरहित, निर्दोष-चारित्र का पालन अज्ञान और विपरीत बुद्धि वाले जीव, २-सम्यक्त्वी करने वाले जीवों का बोधक 'सातवाँ'-'अप्रमत्त (सम्यग्दृष्टि) अर्थात् ज्ञानी, विवेकशील, प्रयोजनभूत संयत'-गुणस्थान है। लक्ष्य के मर्मज्ञ ।
__ यद्यपि, इस अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव ____ उक्त दोनों प्रकार के जीवों में से प्रथम प्रकार को अभी पूर्ण-वीतराग दश
को अभी पूर्ण-वीतराग दशा प्राप्त नहीं हई है, के जीवों का बोध कराने वाला पहला गणस्थान और 'छद्मस्थ'-'कर्मावत' है, किन्तु, वीतरागदशा ॐ 'मिथ्यात्व' यानी 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान है । सम्यग- प्राप्त करने की ओर उन्मुख है, जिससे, इस गुण- KC दृष्टि-जीवों के तीन प्रकार होते हैं-१-सम्यक्त्व से स्थानवर्ती कितने ही जीव, व्यवस्थित रीति से ) गिरते समय के स्वल्प-सम्यक्त्व वाले जीव, २-अर्ध- कर्मों का क्षय करने के लिये श्रेणी-आरोहण करते सम्यक्त्व और अर्ध-मिथ्यात्व वाले जीव, ३-विशुद्ध हैं। इस तरह के जीवों की आध्यात्मिक-विशुद्धि सम्यक्त्व वाले किन्तु चारित्र-रहित जीव । इन उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। श्रेणी-आरोहण का
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन (e) ( साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only
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