Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने के सम्बन्ध में मुख्य मार्ग के अनुयायी हैं। यज्ञ आदि के द्वारा देवताओं तीन युक्तियां हैं
को प्रसन्न करके स्वर्ण प्राप्ति को ही अपना मुख्य १. कार्यकारण भाव मलक-जितने भी कार्य कार्य समझते हैं। वैदिकी हिंसा को हिंसा नहीं होते हैं वे किसी बुद्धिमानकर्ता की अपेक्षा रखते हैं,
AH मानते हैं। जैसे घट । पृथ्वी, पर्वत आदि भी कार्य हैं, इसलिये किन्तु अर्वाचीन मीमांसक पूर्वोक्त मान्यताओं
ये भी किसी कर्ता के बनाये हुए हैं। यह कर्ता के विरोधी हैं । ये वेदों के उत्तरवर्ती उपनिषदों के या ईश्वर ही है।
आधार पर से अपने सिद्धान्तों के प्ररूपक होने से ___ २. सत्तामूलक-यदि ईश्वर की सत्ता नहीं।
ही उत्तरमीमांसक वेदान्ती या ज्ञानमीमांसक कहलाते होती तो हमारे हृदय में ईश्वर के अस्तित्व की हैं। इनके भी प्रमुख दो भेद हैं-भाट्ट (कुमारिल भावना नहीं उपजती।
भट्ट) मीमांसक और प्राभाकर (प्रभाकर) मीमां
सक । वेदान्ती मात्र अद्वत ब्रह्म को मानते हैं । ३. प्रयोजनमूलक-हमें सृष्टि में एक अद्भुत
भाट्ट प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। यह व्यवस्था और ,
__ अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणों को और इसका सामंजस्य केवल परमाणु आदि के संयोग
प्राभाकर अभाव को प्रत्यक्ष द्वारा ग्राह्य मान कर का फल नहीं, इसलिये अनुमान होता है कि कोई
अर्धापत्ति पर्यन्त पाँच ही प्रमाण स्वीकार करते हैं। ऐसी शक्तिशाली महान शक्ति अवश्य है, जिसने इस सृष्टि की रचना की है।
पूर्वमीमांसकों का मत है कि वेद ही प्रमाण
और अपौरुषेय हैं क्योंकि कर्तव्य रूप धर्म अतीनैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन,
न्द्रिय हैं, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से नहीं जाना जा दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प
सकता है। धर्म का ज्ञान वेद वाक्यों की प्रेरणा वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान
(मोदना) से ही होता है। उपनिषद भी वेद वाक्यों के इन सोलह तत्वों के ज्ञान से दुःख का नाश होने पर
समर्थक हैं । अतः वेदों को ही प्रमाण मानना चाहिए मुक्ति मानते हैं और मोक्ष के लिए अपवर्ग शब्द
" श०५ तथा वेदों का कोई कर्ता प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से । का प्रयोग करते हैं।
सिद्ध नहीं होता है। जिन शास्त्रों का कोई कर्ता ) नैयायिक दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान देखा जाता है, उनको प्रमाण नहीं कहा जा सकता और आगम (शब्द) इन चार प्रमाणों को माना है। है। इसलिए अपौरुषेय होने के कारण वेद ही आगम के रूप में वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार प्रमाण हैं, वेद नित्य हैं, अबाधित हैं, और धर्म के किया है। अर्थापत्ति, संभव और एतिह्य आदि का प्रतिपादक होने से ज्ञान के साधन में तथा अपौरुप्रत्यक्ष, अनुमान आदि उक्त चार प्रमाणों अन्तर्भाव षेय होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।
किया है । नैयायिक दर्शन पिठरपाक के सिद्धान्त वेद शब्दात्मक हैं, इसलिए जैसे वेद नित्य और C को मानता है।
अपौरुषेय हैं, वैसे ही शब्द भी नित्य व सर्वव्यापक मीमांसादर्शन-इसके आद्य प्रस्तावक जैमिनी है। शब्द को नित्य मानने का कारण यह है कि ऋषि माने जाने से इसे जैमिनीय दर्शन भी कहते एक स्थान पर प्रयुक्त गकार आदि वर्गों का उसी है । यह दर्शन उपनिषदों के पूर्ववर्ती वेद को प्रमाण रूप में सर्वत्र ज्ञान होता है तथा एक शब्द का एक मानता है । यह मान्यता प्राचीन है। इसलिये इस बार संकेत ग्रहण कर लेने पर कालान्तर में भी
मान्यता वाले पूर्वमीमांसक कहलाते हैं। ये धूम- उसी संकेत से शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है। 5.२७२
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
70 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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