Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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__ ईश्वर को सृष्टि व संहार कर्ता न मानने के न्तिक रूप से नाश होने को मोक्ष कहते हैं। जिसका बारे में मीमांसकों का मन्तव्य है कि अपर्व ही यज्ञ समय शम. दम, ब्रह्मचर्य आदि आदि का फल देने वाला है । अतः ईश्वर को जगत् होने से देह का अभाव हो जाता है, उस समय का कर्ता नहीं माना जा सकता है। वेदों को बनाने मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था के लिए भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, वे तो आनन्द रूप नहीं है, क्योंकि निर्गुण आत्मा में अपौरुषेय होने से स्वतः प्रमाण है।
आनन्द नहीं रह सकता है। मीमांसा दर्शन में पहले नहीं जाने हुए पदार्थों कुमारिल के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति के जानने को प्रमाण का लक्षण माना है, तथा की अवस्था ही मोक्ष है। कुमारिल भी मोक्ष को 22 स्मति ज्ञान के अतिरिक्त सम्पूर्ण ज्ञान स्वतः प्रमाण आनन्द रूप नहीं मानते हैं। है। क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति के समय ही हमें
यह मीमांसा के चिन्तन की रूपरेखा है । पदार्थों का ज्ञान (ज्ञप्ति) होता है। अतएव ज्ञान अपनी उत्पत्ति में और पदार्थों के प्रकाश करने में उपसंहार रूप में यह जानना चाहिए उपयुक्त किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है।
समग्र कथन भारतीय दर्शनों के चिन्तन-सिन्धु का 12 मीमांसा दर्शन में आत्मा के अस्तित्व को माना
बिन्दु और इस बिन्दु का भी शतांश भाग जैसा है । || है तथा उसे शरीर, इन्द्रिय और बुद्धि से भिन्न मान
पाठकगण इस अंश को पढ़कर समग्र दर्शन साहित्य
का अध्ययन करने की ओर प्रयत्नशील हों यही कर आत्मबहत्ववाद के सिद्धान्त को स्वीकार
अपेक्षा है। क्योंकि यहाँ बहुत ही आवश्यक अंश किया गया है। कुमारिल ने आत्मा को कर्ता, भोक्ता, ज्ञान शक्ति वाला, नित्य, विभु, परिणामी
" का वर्णन नहीं भी किया जा सका है। किन्तु आर अहंप्रत्यय का विषय माना है। प्रभाकर ने सुविधानुसार विस्तार से भारतीय दर्शनों के आत्मा को कर्ता, भोक्ता और विभ स्वीकार करने चिन्तन को प्रस्तुत करने की आकांक्षा है। भी आत्मा में परिवर्तन नहीं माना है, इनके मत से इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं आत्मा ज्ञाता है और पदार्थ ज्ञेय हैं । ज्ञाता और कि प्रत्येक दर्शन के चिन्तन की धारा अपनी-अपनी ज्ञय एक नहीं हो सकते हैं, इसलिए आत्मा कभी है । परन्तु देखा जाय तो सत्य एक है, परन्तु प्रत्येक स्वसंवेदन का विषय नहीं हो सकती है। यदि दार्शनिक भिन्न-भिन्न देश और काल की परिस्थिति स्वसंवेदक माना जाये तो गाढ़ निद्रा में भी ज्ञान के अनुसार सत्य के अंश मात्र को ग्रहण करता है। मानना चाहिए।
परन्तु ध्येय सबका एक है-पूर्ण सत्य की उपलब्धि । मीमांसा दर्शन में मोक्ष पुरुषार्थ की मान्यता
अध्यात्मयोगी आनन्दधन ने इसी मन्तव्य को सरल
सुगम शब्दों में स्पष्ट कर दिया है-- 32| अर्वाचीन आचार्यों की देन है। प्राचीन आचार्यों ने धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों को मानकर
षट दरसन जिन अंग भणीजे, धर्म को ही मुख्य पुरुषार्थ स्वीकार किया है। वे
न्याय षडंग जो साधे रे। धर्म को सम्पूर्ण सुखों का कारण मानकर स्वर्ग की
नमि जिनवरना चरण उपासक, प्राप्ति करना ही अन्तिम ध्येय समझते थे।
षट्दर्शन आराधे रे ॥ __ प्रभाकर संसार के कारण भूतकालीन धर्म और अधर्म के नाश होने पर हमारे शरीर के आत्य
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOOR HD
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