Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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पर्याय का उत्पन्न होना केवल द्रव्य योग्यता पर स्याद्वाद से भी । स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधा- II निर्भर नहीं है। किन्तु कारणभूत पर्याय की तत्प- नता है और अनेकान्तवाद में अनेकान्त की । परन्तु र्याय योग्यता पर निर्भर है। प्रत्येक द्रव्य के प्रति दोनों का आशय समान ही है कि स्यावाद जिस समय स्वभावतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से परि- वस्तु का कथन करता है, वह अनेकान्तात्मक, अनेक णामी होने के कारण सब व्यवस्थायें सदसत् धर्मात्मक है । और स्याद्वाद द्वारा जिस वस्तु का कार्यवाद के आधार से व्यवस्थित होती हैं । क्योंकि कथन किया जा रहा है, वह वस्तु अनेकान्तात्मक, विकसित कार्य अपने कारण में कार्य आकार से अनेक धर्मात्मक है, इसका बोध अनेकान्तवाद द्वारा 0 असत् होकर भी योग्यता या शक्ति रूप से सत् हैं। होता है। यदि कारण द्रव्य में यह शक्ति न हो तो उससे वह दसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अनेकान्तकार्य उत्पन्न ही नहीं हो सकता है । जैन दर्शन के वादपर्वक स्यादवाद होता है। अनेकान्त वाच्य है अनुसार यह लोक-व्यवस्था व द्रव्य-व्यवस्था का और स्यादवाद उसका वाचक । स्यादवाद कथन र रूप है। कोई ईश्वर आदि इसका निर्माता या की निर्दोष प्रणाली है और अनेकान्तवाद निश्चित ७ नियामक नहीं है।
वस्तु स्वरूप का बोधक है। यह जैन दर्शन की म ये जीवादि द्रव्य अनेकान्तात्मक होने से प्रमेय- चिन्तन प्रणाली की संक्षिप्त रूप-रेखा जानना बनते हैं। इसी पृष्ठभूमि के आधार पर जैन दर्शन चाहिये। ने अपने चिन्तन, मनन व कथन को स्पष्ट करने के बौद्ध दर्शन-इसे सुगतदर्शन भी कहते हैं । १. ATHA लिए स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । प्रमेय- सौत्रान्तिक, २. वैभाषिक, ३. माध्यमिक ४. योगाभूत पदार्थ के एक-एक अंश में नयों की प्रवृत्ति होती चार-ये बौद्धों के चार भेद है। है तथा समग्र वस्तु का निरूपण प्रमाण द्वारा किया ।
१. सौत्रान्तिक बुद्ध के सूत्रों को अधिक महत्व ) जाता है।
देते हैं। ये बाह्य जगत् के अस्तित्व को मानते हैं स्याद्वाद का अर्थ है-विभिन्न दृष्टिकोणों का और बाद्य व अन्तः के भेद से सब पदार्थों को दो 27 तटस्थ बुद्धि व दृष्टि से समन्वय करना । स्याद्वाद विभागों में विभक्त करते हैं। बाह्य पदार्थ भौतिक
में स्यात् शब्द का अर्थ एक अपेक्षा, अपेक्षाविशेष, रूप और आन्तर चित-चैत्य रूप हैं। इनके मता* कथंचित् अर्थ का द्योतक हैं और वाद का अर्थ है नुसार पाँच स्कन्धों को छोड़कर आत्मा स्वतन्त्र
कथन करना अर्थात अपेक्षाविशेष से पदार्थ में पदार्थ नहीं है। पांचों स्कन्ध (विज्ञान, वेदना, संज्ञा, । विद्यमान अन्य अपेक्षाओं का निराकरण न करते संस्कार, रूप) ही परलोक जाते हैं । अतीत्, अना
हए भिन्न-भिन्न विचारों का एकीकरण करना। गत्, सहेतुक, विनाश, आकाश और पुद्गल (नित्य, इसीलिये स्याद्वाद को पद्धति का आग्रह नहीं होता व्यापक आत्मा) ये संज्ञामात्र, प्रतिज्ञामात्र, संवृतिहै, किन्तु सत्य प्राप्ति का आग्रह है, जहाँ भी सत्य मात्र और व्यवहार मात्र हैं। तदुत्पत्ति तदाकारता है, उसे ग्रहण करना है।
से पदार्थों का ज्ञान होता है और वह प्रत्यक्ष से न A जैनाचार्यों ने पदार्थ निरूपण के प्रसंग में स्याद्- होकर अन्यथा उपपत्ति रूप अनुमान से होता है।
वाद और अनेकान्तवाद इन दोनों शब्दों का प्रयोग अन्यापोह (अन्य व्यावृत्ति) ही शब्द का अर्थ है। एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये किया है। नैरात्म्य भावना से जिस समय ज्ञान संज्ञान का उसके पीछे हेतु यह है कि वस्तु की अनेकान्तात्मकता उच्छेद हो जाता है, उस समय निर्वाण होता है। अनेकान्त शब्द से भी अभिव्यक्त होती है और २. वैभाषिक अभिकर्म की टीका विभाषा तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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