Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
View full book text
________________
कषायवीतराग' कहते हैं और उनके स्वरूप - विशेष को 'क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान कहते हैं ।
मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से इस गुणस्थानवर्ती जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान विमल होते हैं । इस गुणस्थान से 'पतन' नहीं होता है । क्योंकि, इसमें वर्तमान जीव 'क्षपक' श्रेणी वाले ही होते हैं । 'पतन' का कारण 'मोहनीय' कर्म है । किन्तु यहाँ उसका सर्वथा — निःशेष रूप से क्षय हो चुका है ।
इस गुणस्थान तक, आत्म-गुणों के घातककर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से 'योग - निमित्तक'कर्मावरण शेष रह जाता है । इसी की अपेक्षा से 'सयोगि केवली' नामक तेरहवाँ और 'योग' का सम्बन्ध न रहने पर होने वाला 'अयोगि केवली' नामक चौदहवाँ गुणस्थान सम्भव होता है । इनका स्वरूप निर्दिष्ट करने से पहले, कर्मक्षय की विशेष प्रक्रिया रूप 'उपशम' श्रेणी और 'क्षपक' श्रेणी का निर्देश संक्षेप में यहाँ करना उचित होगा ।
यह उपशमन इस क्रम से होता है - सर्वप्रथम 'नपुंसक वेद', पश्चात् क्रमशः 'स्त्रीवेद', 'हास्य- 1 आदि षट्क", पुरुषवेद, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण क्रोधयुगल, संज्वलनक्रोध, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मानयुगल, संज्वलमान, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मायायुगल, संज्वलनमाया, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण लोभयुगल को, तथा दशवें गुणस्थान में संज्वनल-1 लोभ को उपशमित करता है । इस प्रकार से मोहनीय कर्म के सर्वांशतः उपशमित हो जाने से इस श्रेणी को 'उपशमक' श्रेणी कहते हैं ।
क्षपक श्रेणी -- इस श्रेणी का आरोहक जीव चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में, सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क और दर्शनमोह त्रिक, इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय करता है । अनन्तर, आठवें गुणस्थान में अप्रख्यानावरण- क्रोधादि कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय चतुष्क, इन आठ कर्म प्रकृतियों के क्षय को प्रारम्भ करता है । जब तक ये आठ प्रकृतियाँ 'क्षय' नहीं हो पातीं कि बीच में
उपशम श्र ेणी - इस श्रेणी के प्रारम्भ होने का ही नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ में, स्त्यानद्धि- त्रिकक्रम, संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार है
आदि सोलह अशुभ प्रकृतियों का क्षय कर डालता है और फिर अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण कषाय अष्टक के शेष रहे अंश का क्षय करता है ।
गुणस्थान के अन्त में क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य-पट्क, पुरुषवेद, संज्वलन- क्रोध-मानमाया का क्षय करता है । अन्त में, दशवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का भी क्षय कर देता है । इस प्रकार सम्पूर्ण मोहनीय तथा साथ में कतिपयअशुभ प्रकृतियों का क्षय होने से इसे क्षपक श्रेणी कहते हैं ।
चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान वर्तमान जीव, पहले अन'न्तानुबन्धी 'क्रोध' आदि चार कषात्रों का उपशम करता है । तदनन्तर, अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व मोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोह नीय रूप दर्शनमोहनीय त्रिक का एक साथ उपशमन करता है । इसके बाद वह जीव छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार आता-जाता रहता है । अनन्तर आठवें गुणस्थान में होता हुआ नौवें गुणस्थान को प्राप्त करके, वहाँ चारित्र मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का उपशमन करना प्रारम्भ कर देता है ।
१ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छः नोकषायों की 'हास्यषट्क' यह संज्ञा है ।
२६२
Jain Education International
'उपशमक' और 'क्षपक' श्रेणी में विशेषता यह है कि उपशमक श्र ेणी में सिर्फ मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उपशमित होती हैं, जो निमित्त मिलने
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
For Private & Personal Use Only
८८
www.jainelibrary.org