Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता। लेकिन, जैसे-जैसे 'उत्क्रान्ति' और भी ऊर्ध्वमुखो हो जाती है, जिससे राग-द्वेष का आवरण शिथिल या नष्ट होता है, स्वरूप-स्थिरता बढ़ने लगती है । अन्ततः, प्रयत्नो-1 वैसे-वैसे उसका असली स्वरूप प्रकट होता न्मुखी आत्मा, 'दर्शनमोह' व 'चारित्रमोह' का जाता है।
सर्वथा-नाश करके, पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर ही ___इस विकास-मार्ग में जीव को अनेक अवस्थाएँ विराम लेती है। आत्मा का यही तो परमसाध्य 180 पार करनी पड़ती हैं। जैसे, थर्मामीटर की नली के ध्यय है। अंक, उष्णता के परिणाम को बतलाते हैं, वैसे ही, आशय यह है कि आत्मा के मौलिक-गुणों के उक्त अवस्थाएँ, जीव के आध्यात्मिक विकास की विकास का यह क्रम, 'दर्शन' तथा 'चारित्र' मोह-102 मात्रा का संकेत करती हैं। विकास-मार्ग की इन्हीं शक्ति की शुद्धता के तर-तम-स्वरूप पर निर्भर होता क्रमिक अवस्थाओं को 'गुणस्थान' कहते हैं। है । शुद्धता की इसी तर-तमता के कारण, विकासो- )
गुणस्थान-क्रम का आधार-आत्मा की प्रार- न्मुख आत्मा, जिन-जिन भूमिकाओं के स्तरों पर म्भिक अवस्था, अनादिकाल से अज्ञानपूर्ण है। यह पहु'
पहुँचता है, उन्हीं की संज्ञा है-'गुणस्थान'। अवस्था, सबसे प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। 'ग्रंथि का स्वरूप और उसके भेदन की प्रक्रिया : इस अवस्था का कारण है-'मोह'। मोह की गुणस्थान क्रम का आधार है-मोह की 'सबलता' प्रधान शक्तियाँ दो हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में और 'निर्बलता', यह पूर्व में ही संकेतित है। इस 'दर्शनमोह' और 'चारित्रमोह' कहते हैं। इनमें से 'मोह' को कैसे निर्बल बनाया जाये, संक्षेप में विचार प्रथम शक्ति, आत्मा को 'दर्शन'-स्व-पररूप का कर ले। निश्चयात्मक निर्णय, विवेक और विज्ञान-नहीं आत्मा का स्वरूप, अनादिकाल से 'अधःपतित' होने देती है। जबकि दूसरी शक्ति, विवेक प्राप्त है। इसका कारण राग-द्वेष रूप मोह का प्रबलतम कर लेने पर भी, आत्मा को तदनुसार प्रवृत्ति नहीं आचरण है। इस तरह के आचरण का ही नाम, करने देती। व्यवहार में देखते हैं कि वस्तु का जैन शास्त्रों ने 'ग्रन्थि' रखा है। लोक में भी हम ) यथार्थ दर्शन/बोध होने पर भी उसे 'प्राप्त करने' देखते हैं कि लकड़ी में जहाँ-जहाँ 'ग्रन्थि' होती है, या 'त्यागने' की चेष्टा, व्यक्ति द्वारा की जाती है। वहाँ से उसको काटना-छेदना दुस्साध्य होता है । आध्यात्मिक विकासोन्मुख आत्मा के लिए भी यही राग-द्वेषरूप ग्रन्थि-गाँठ की भी यही स्थिति होतो दो कार्य मुख्य होते हैं-(१) स्व-रूप दर्शन, और है। रेशमी-गाँठ की तरह यह सुदृढ़, सघन और (२) स्व-रूप स्थिति । 'दर्शनमोह' रूप प्रथम शक्ति दुर्भेद्य होती है । इसी के कारण जीव अनादि काल जब तक प्रबल रहती है, तब तक 'चारित्रमोह' रूप से ससार में परिभ्रमण कर रहा है और विविध दुसरी शक्ति भी तदनुरूप बनी रहती है। स्वरूप- प्रकार के दुःख वेदन कर रहा है। बोध हो जाने पर स्वरूप-लाभ का मार्ग सुगम यद्यपि, इस स्थिति में विद्यमान समस्त आत्माओं होता जाता है। किन्तु, स्वरूप-स्थिति के लिए को हम एक जैसा 'संसारी' 'बद्ध' आत्मा, मानते हैं, आवश्यक है कि मोह की दूसरी शक्ति-'चारित्र- तथापि इनके आध्यात्मिक स्वरूप में एक जैसा मोह' को शिथिल किया जाये। इसोलिए, आत्मा समान-स्तर नहीं होता। क्योंकि, संसारी-जीवों में, उसे शिथिल करने का प्रयत्न करती है, और, जब मोह की दोनों शक्तियों का आधिपत्य, इनमें 'समा-.. वह इसे अंशतः शिथिल कर लेती है, तब, उसकी नता' का द्योतन कराता अवश्य है, किन्तु, प्रत्येक
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१४ विशेष विस्तार के लिए देखें-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा--११६५ से ११६७तक ।
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तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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