Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
View full book text
________________
संयम पूर्ण साधना की साक्षात् मूर्ति कुसुमवती जी महाराज ने अपनी साधना के साथ
ज्ञान का समन्वय कर उस पूर्णता की ओर बढ़ने -आचर्य राजकुमार जैन का प्रयास किया है जिस ओर साधना का पथिक
अपनी मंजिल देखता है। समाज में साधु-सन्तों की महत्वपूर्ण भूमिका श्री कुसुमवती जी महाराज का जीवन केवल || रही है। समाज उन्हें धर्म के प्रतिनिधि या अग्रदूत साधनामय ही नहीं है, अपितु वे उन श्रेष्ठ मानCU के रूप में देखता है । अतः समाज में उन्हें विशिष्ट वीय गणों से परिपूर्ण हैं जो जीवन को सार्थकता All स्थान एवं महत्व प्राप्त होता है। विभिन्न सामा- प्रदान करते हैं । आपके जीवन में महिष्णता, सर
जिक एवं वैयक्तिक बुराइयों एवं विकारों से वे दूर लता, करुणा एवं मृदुता का ऐसा अद्भुत समन्वय रहते हैं, अतः समाज एवं देश को वे सही दिशा है जो मानव समाज के लिए आदर्श प्रस्तुत करता । निर्देश देते हैं।
है। आपके मुख मण्डल पर आभा एवं तेज युक्त I
ऐसा सौम्य भाव है कि व्यक्ति सहज स्वाभाविक हमारे देश और समाज में ऐसे साधु-सन्तों की अविरल परम्परा रही है। उस परम्परा की महत्व
रूप से आकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। विकार भाव पूर्ण कड़ी है-परम विदुषी, साध्वीरत्न, वन्दनीय
रहित आपकी सौम्य मूर्ति जिस प्रकृति प्रदत्त सहज श्री कुसुमवती जी महाराज । आप एक उच्च कोटि भाव एवं नसगिकता का आभास देती है वह अन्यत्र 1 र की साधिका हैं और साधना के उच्चतम आदर्शों नह' को प्राप्त करना आपके जीवन का मुख्य
निःसन्देह आप जैसी सरल स्वभावी, साधनामय लक्ष्य है।
तपःपूत जीवनयापन करने वाली परम
साध्वीरत्त जैसे व्यक्तित्व के प्रति न केवल समाज साधनामय जीवन के कंटकों को निस्पह भाव
अपितु सम्पूर्ण देश को गर्व है। मैं ऐसे निस्पही से सहन करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते रहना आपके
व्यक्तित्व के प्रति नतमस्तक हो उनके चरण युगल १ जीवन की मुख्य विशेषता है जो आपकी संयम यात्रा
में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ। के गौरवपूर्ण ५० वर्षों के साधना काल में लक्षित होती है । आपने अपनी साधना में संयम को प्रमुख स्थान देकर साधना के महत्व को द्विगुणित किया
है, क्योंकि संयम के बिना साधना की पूर्णता - संदिग्ध है।
तेजस्विता की साक्षात मूर्ति साधना के साथ ज्ञान की अनिवार्यता भी अंगी
-वैद्य सुन्दरलाल जैन कार की गई है। ज्ञान के बिना भी साधना अपूर्ण समझी जाती है। क्योंकि ज्ञान का आलोक ही साधना के क्षेत्र में जैन साध, साध्वी. सन्तों साधक या योगी के अन्तःकरण के उस अन्धकार की ऐसी विशिष्ट परम्परा रही है जो अन्यत्र दुर्लभ
को निर्मूल करता है जो साधना में बाधक है। है। साधना की बात करना और उसे आत्मसात (६ न लौकिक ज्ञान जहां भौतिक दृष्टि से उपयोगी है वहां कर उसमें तल्लीन हो जाना अलग-अलग बात है।
आध्यात्मिक ज्ञान आत्मा के विकास एवं आध्या- जैन साधु, सन्तों में साधना की बात नहीं की जाती त्मिक उत्कर्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पूजनीय है, अपितु उस पथ का अनुगामी बनकर तद्वत्
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
order
Jain
oration International
Sorivale & Personal Use Only
www.jainelibrate