Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
View full book text
________________
नारी को भी है । आध्यात्मिक दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है । यदि पुरुष आत्म-साधना करते हुए परमात्म-पद को प्राप्त कर सकता है तो नारी भी यही पद प्राप्त कर सकती है। यहाँ तक कि नारी का तीर्थकर पद भी प्राप्त कर सकती है। इस समानता का ही परिणाम था कि प्रत्येक तीर्थंकर के शासन में साध्वियों की संख्या अधिक रही। ऐसा करके नारी जाति ने यह भी बता दिया कि संयम व्रत अंगीकार करने में वह पुरुषों से पीछे नहीं आगे ही है। नारी को पुरुष द्वारा हेय समझना अज्ञान, अधर्म एवं एक अतार्किक है। नारी अपने मातृप्रेम से पुरुष को प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर समाज का सर्वाधिक हित साधन करती है तथा वासना, विकार और कर्मजाल को काटकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है। इसीलिए महावीर ने अपने चतुर्विध संघ में साधुओं की भाँति साध्वियों को और श्रावकों की भांति श्राविकाओं को ममान स्थान दिया। उन्होंने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं को तीर्थ कहा और चारों को मोक्ष मार्ग का पथिक बताया। यही कारण था कि महावीर के धर्मशासन में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक थी। पुरुषों की अपेक्षा नारियों की अधिक संख्या होना इस बात का प्रतीक है कि महाव ने नारी जागृति का जो बिगुल बजाया, उससे नारी समाज में जागृति आई व पतित और निराश नारी साधना के मार्ग पर बढ़ी।
भगवान् महावीर ने दास-दासी प्रथा और नारी क्रय-विक्रय पर रोक लगवाई। उनके धर्म संघ में उन्होंने सभी श्रेणी की नारियों को दीक्षाव्रत अंगीकार करने का अधिकार दिया। यह उनकी उदार एवं समान दृष्टि थी।
महावीर ने साध्वी समाज का नेतृत्व महासती चन्दनबाला के हाथों में सौंपकर भी यह स्पष्ट कर दिया कि नारी में नेतृत्व क्षमता भी है।
अपनी साधना के बल पर नारी तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकती है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण उन्नीसवें तीर्थकर मल्लीनाथ हैं। सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त करने वाली मरुदेवी हैं। केवलज्ञान प्राप्त करने वाली भी अनेक नारियां हुई हैं। इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि नारी को आदर-सम्मान और गौरव प्रदान करवाने में जैनधर्म अग्रणी है। इस धर्म में नर और नारी में कोई भेद नहीं किया जाता है। वर्तमान काल में भी अनेक महासतियाँ ऐसी हैं जिन्होंने अपनी साधना और वैदुष्य से समाज में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया है । अनेक ऐसी साध्वियां भी हैं जो साधुओं से भी आगे हैं।
प्राणीमात्र में एक समान आत्मचेतना का स्वीकरण श्रमण संस्कृति की धुरा है, उसके चिन्तन-1 मनन की आधारशिला है । इसी धारणा के आधार पर उसके तीन मूल सिद्धान्त स्थिर हुए हैं
१. आत्म-साधना, आत्म-कल्याण की दृष्टि से प्रत्येक प्राणी को समान अधिकार है, इसलिए उनमें वर्ण, जाति, लिंग, वय आदि किसी भी प्रकार का भेद अतात्त्विक है । अतः जन्म, जाति, पद, लिंग 0 आदि की दृष्टि से न कोई श्रेष्ठ है और न कोई हीन ।
२. प्रत्येक प्राणी में अपने समान ही चेतना है, आत्मा है, अनुभुति एवं संवेदना है, इसलिए किसी को भी कष्ट नहीं देना चाहिए, उत्पीडित नहीं करना चाहिए।
३. जो प्राणी अपनी शान्ति, समृद्धि एवं आनन्द की कामना करता है, उसे उसी रूप में दूसरों की शान्ति, समृद्धि एवं आनन्द की कामना करनी चाहिए।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रमण संस्कृति ने प्राणीमात्र के बीच अभेद दृष्टि, समत्व बुद्धि एवं मैत्री संस्कार का अमर सूत्र जोड़ने का प्रयत्न किया है। प्रत्येक प्राणी को आत्म-विकास एवं द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
१०७
50 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only.
www.jainelibrary.org