Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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षण का प्रयोग इष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ में आज दुनिया मे सौ में निन्यानवे अपराधी घट-६ किया गया है।14
नाओं का कारण अर्थ या काम होता है । अदना-सी ___ ख्याति और पूजा आदि की भावना की निवृत्ति बात पर कौड़ी तक का मूल्य नहीं रखने वाली के अर्थ में उत्तम विशेषण दिया गया है ।15 अर्थात् चीजों के लिए भी लोग हिंसा पर उतारू हो जाते , ख्याति पूजादि के अभिप्राय से ग्रहण की गई क्षमादि हैं, मनुष्य ही मनुष्य की जान का ग्राहक बन गया उत्तम नहीं है।
है। इन मलिन वत्तियों का विनाश आज भी उत्तम ___ जहाँ तक सामाजिक चरित्र के नैतिक उत्थान तप और ब्रह्मचर्य नामक धर्म से किया जा में जैन धर्म के उपर्युक्त दस लक्षणों की प्रासंगिक सकता है। | उपयोगिता का प्रश्न है, इस बात से कोई इन्कार समाज में व्याप्त भखमरी, रोग, अज्ञान की नहीं कर सकता कि धर्म का एक पहलू सामाजिक निवत्ति उत्तम त्याग के द्वारा ही सम्भव है। वास्तचरित्र के नैतिक उत्थान भी रहा है। सामाजिक विक आनन्द शारीरिक सुखों में या भौतिक सुविनैतिकता के मूल्य जब-जब विस्थापित हए हैं, शासनालों
धाओं के अनन्त साधनों को एकत्रित करने में नहीं अमानवीय व्यवहारों की प्रचुरता बढ़ी है तब-तब मिलता। इसकी प्राप्ति मोहमाया के बीच सम्भव उसे धर्म के द्वारा ही मर्यादित किया गया है। नहीं है। भोगतृप्ति राह के प्रत्येक पोड़ पर मनुष्य आज भी जैन धर्म के दसों लक्षणों की उपयोगिता ठगा जाता है। शाश्वत आनन्द की प्राप्ति भौति
ज्यों की त्यों बनी हुई है, क्योंकि आज समाज में कता से हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिपात करने - आतंकवाद, बलात्कार, चोरी, डकैती, लूटपाट तथा किसी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखते हुए उत्तम ON आदि दुर्गुणों से नैतिक मूल्यों का प्रायः ह्रास हो आकिंचन्य धर्म-पालन करने में ही है।
गया है जिसकी पुनर्स्थापना जैन धर्माचरण से ही सम्भव है।
टिप्पण-सन्दर्भ __ आज के मनुष्य क्रोधी, दम्भी, घमंडी, झूठ १. जैन दर्शन--डा. महेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ-२३६ बोलने वाले हो गये हैं। क्षमाधर्म के द्वारा क्रोध को २. महापुराण-२३७
बहुत हद तक समाप्त किया जा सकता है। क्रोध ३. तत्त्वार्थ सूत्र-६/६ O) के शमन से समाज के बहुत से दोष स्वतः निराश्रित ४. उत्तराध्ययन सूत्र-२५/२४
हो जाते हैं। अहिंसा की भावना जागृत होती है ५. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा-४६५ तथा समाज में कोढ़ के रूप में व्याप्त आतंकवाद ६. पं० सुखलाल संघवी-त० सू० टीका, पृष्ठ ३०५ स्वतः समाप्त हो जाता है। अभिमान का त्याग ७. वही कर उत्तम मार्दव धर्म के द्वारा आसानी से समाज ८. देखें जैन धर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. में मृदुता कोमलता विनम्रता आदि भावों का प्रसार ६१-६५ | किया जा सकता है। आज समाज में दोहरे व्यक्ति- ६. तत्त्वार्थ-सूत्र ६/१६
त्व जीने वालों की संख्या बढ़ रही है जिससे समाज १०. तत्त्वार्थ सूत्र-६/२० में शंका एवं सन्देह का बोलवाला होता जा रहा ११. तत्त्वार्थ सूत्र-६/२२ | है। एक-दूसरे पर विश्वास करना अत्यन्त कठिन १२. बारस अणुवेक्खा-८०
हो गया है । इस दोष का निरसन आर्जव धर्म से ही १३. प० वि०-१२/२ सम्भव है। इसी प्रकार समाज में बढ़ती हुई लोभ १४. सर्वार्थसिद्धि-६/६ प्रवृत्ति, असत्य भाषण, असंयम का परिहार क्रमशः १५. चारित्र सार-५८/१ शौच, सत्य और संयम से ही सम्भव है।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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