Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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मन स्वाभाविक रूप में स्थिर ही है । वृत्तियों से लिए ध्यान एक जाज्वल्यमान अग्नि समान है । ही मन उत्तेजित होता है । अतः जैनागमों में ध्यान का स्वरूप व्यापक रूप में यत्र तत्र उपलब्ध है ।
ध्यान के प्रकार -
उत्तेजित मन अनेक इच्छाओं, विषयों और अपेक्षाओं को जन्म देता है । अनेक प्रकार के अध्यवसाय को अपने मन में स्थान देता है और फिर वे अध्यवसाय चेतन मन से अचेतन मन तक पहुँच जाते हैं । उच्छृंखल अश्व सारथी को उन्मार्ग में ले जाता है वैसे ही राग-द्वेष प्रयुक्त अध्यवसाय साधक को उत्पथ में ले जाते हैं । यह वृत्तियों का दुष्प्रणिधान है । शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में हमारी इन्द्रियों की प्रवृत्तियों से दिशा निर्देश मिलता है । और हमारा मन विकृत बन जाता है । इन विषयों से मन की शक्ति कमजोर हो जाती है । विषय और कषाय से क्या कभी किसी भी जीवात्मा को लाभ हुआ है ? मन पर जितने अधिक विषयों आघात लगते हैं, मन उतनी ही अधिक मात्रा में अपनी शक्ति को खोता है । यह है मन का दुष्प्रणिधान ।
जिस साधक में विषय और कषाय की प्रबलता होती है उसकी साधना निष्फल होती है अतः सर्वप्रथम हमें विषय और कषाय का निग्रह करना चाहिए - यह है मन का सुप्रणिधान । किन्तु हमें अनुकूल प्रवृत्ति में राग होता है और प्रतिकूल प्रवृत्ति में द्वेष | यह राग और द्वेष ही मन में विक्षेप पैदा करता है ! विक्षिप्त मन धुंधले दर्पण जैसा है धुंधले दर्पण में प्रतिबिम्ब अस्पष्ट-सा उभर आता है । वह जैसे-जैसे स्वच्छ और निर्मल होता रहेगा, प्रतिबिम्ब भी स्पष्ट उभरता जायेगा । मन का सुप्रणिधान हमें शुभ चिन्तन, शुभ मनन और शुभ अध्यवसाय की ओर ले जाता है । अतः हमारा चित्त परिशुद्ध निर्मल और पवित्र बनता है ।
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विशुद्ध मन संसार से विमुख और मोक्ष के सन्मुख ले जाता है । मन का विशुद्धिकरण ही ध्यान है । ध्यान से ही मन के समस्त विकारों का उपशम या क्षय होता है । पाप राशि को क्षय करने के
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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मन की एकाग्रता शुभ आलम्बन रूप होती है । ठीक उसी प्रकार अशुभ आलम्बन रूप भी होती है । इस प्रकार शुभ और अशुभ के कारण ध्यान के चार भेद पाये जाते हैं ।
(१) आर्तध्यान - दुःख का चिन्तन, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, प्रतिकूल वेदना, चिन्ता, रोग इत्यादि होना आर्तध्यान है ।
(२) रौद्रध्यान - क्रूरता, हिंसा की भावना, मृषा की भावना, स्तेय-भावना तथा विषय भावना की अभिवृद्धि ही रौद्रध्यान है ।
(३) धर्मध्यान - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय आदि के सतत चिन्तन में मनोवृत्ति को एकाग्र करना धर्मध्यान है ।
(४) शुक्लध्यान - शुक्लध्यान में चित्तवृत्ति की पूर्ण एकता और निरोध सम्पन्न होता है!। केवल आत्म सन्मुख उपशान्त और क्षयभाव युक्त चित्त शुक्ल कहलाता है। एकाग्रचित्त निरोध से पृथकत्व-वितर्क सविचार, एकत्व - वितर्क अविचार, सूक्ष्म क्रिया निर्मल, शांत, निष्कलंक निरामय, निष्क्रिय और अप्रतिपाती समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति रूप सर्वथा निर्विकल्प स्वरूप में स्थित ध्यान ही शुक्लध्यान कहलाता है ।
साधक का दुर्लक्ष्य
शास्त्रकारों ने आत्म तत्व विशुद्धि हेतु ध्यान का निरूपण किया है । परमपद की प्राप्ति के लिए विकल्प मुक्ति, एकाग्रता रूप ध्यान ही साध्य है । किन्तु आज के साधकों का तत्त्व स्पर्शन से, स्वरूप
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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