Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
View full book text
________________
करुणा और मुदिता आदि वृत्तियों का उदय नहीं होता और चित्त का प्रसादन नहीं होता, तब तक साधक मन की इन स्थितियों को प्राप्त नहीं कर पाता ।
हरिभद्रसूरि के अनुसार योग साधना में संलग्न साधक जब अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन यमों का निष्ठापूर्वक पालन करने लगता है, तब उसके मन में मैत्री भाव प्रतिष्ठित होता है, उसे मित्रा दृष्टि प्राप्त होती है । सामान्य रूप से मैत्रीभाव अथवा मित्रा दृष्टि शब्द से ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह मनोभाव प्रेम से समन्वित मन की स्थिति है, जो दृष्टि वैरभाव का त्याग करने से प्राप्त होती है । पतञ्जलि के अनुसार वैरभाव की निवृत्ति रूप फल की प्राप्ति अहिंसा नामक यम के सम्पूर्णतया पालन से भी हुआ करती है ।" किन्तु यहां वस्तुतः मित्रा दृष्टि में देवों के प्रति श्रद्धा देव कार्यों के सम्पादन में रुचि, उनके हेतु कार्य सम्पादन के प्रसंग में खेद का अभाव अर्थात् देव कार्यों के सम्पादनार्थ अभूतपूर्व बल एवं साधना से सम्पन्न होना उन कार्यों में पूर्ण सफल होने का विश्वास अर्थात् क्रियाफलाश्रयत्व और साथ ही सफलता की स्थिति में उसके प्रति अन्य जनों के हृदय में साथ ही अन्य जनों के प्रति हृदय में निर्वैर भाव की प्रतिष्ठा की स्थिति सभी एक साथ सम्मिलित हैं। मन की इस स्थिति में तत्त्वज्ञान अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में ही रहता है । इसके अतिरिक्त मित्रा दृष्टि का उदय हो जाने पर साधक के चित्त में केवल कुशलकर्म करने की भावना रहती है, अकुशल कर्मों की स्वतः निवृत्ति होने लगती है, उसमें कर्मफल के प्रति आसक्ति सामान्यतः नहीं रहती, सांसारिक प्रपंच के प्रति वैराग्य, दान कर्म में प्रवृत्ति, शास्त्र सम्मत चिन्तन एवं लेखन तथा स्वाध्याय आदि में सहज प्रवृत्ति आदि भावनाएँ एवं क्रियाएँ उनके जीवन की अंग बनने लगती हैं । 14
साधना के क्रम में, हरिभद्र सूरि के अनुसार यमों और साथ-साथ नियमों का भी पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करने से मानसिक स्थिति का कुछ और
२३६
Jain Eation International
उन्नयन होने पर हितकार्यों के सम्पादन में उगा अभाव, तात्विक जिज्ञासा एवं परम तत्त्व विषयक कथा में अविच्छिन्न प्रीति, योगिजनों के प्रति श्रद्धातिरेक एवं उनकी कृपा, उनके प्रति पूर्ण विश्वास की भावना, अकर्मों से निवृत्ति, द्वेषभाव का अभाव, भव भय से भी निवृत्ति मोक्ष की प्राप्ति । समस्त दुःखों की निवृत्ति की अवश्यम्भाविता का विश्वास आदि मनोभाव चित्त में स्थिर होने लगते हैं। मन की इस स्थिति को तारादृष्टि कहते हैं । पतञ्जलि के अनुसार नियमों की साधना के फलस्वरूप स्वयं अपने शरीर सहित दूसरों के शारीरिक संसर्ग के के प्रति घृणा पूर्ण अरुचि, बुद्धि और मन की पवित्रता, इन्द्रियजय, अतिशय तृप्ति, शरीर और इन्द्रियों में अतिशय सामथ्यं इष्टदेवों की कृपा, चित्त की पूर्ण एकाग्रता, एवं आत्मदर्शन की योग्यता आदि परिणाम साधक को परिलक्षित होते हैं । पतञ्जलि निर्दिष्ट इन फलों में शरीर एवं इन्द्रियों में अतिशय सामर्थ्य, इष्ट देवों की कृपा तथा आत्मदर्शन की योग्यता मन की स्थितियां नहीं है । अतः स्वाभाविक है कि दृष्टियों अर्थात् मनःस्थितियों की चर्चा करते हुए हरिभद्रसूरि इनकी चर्चा नहीं करते । अन्यथा पतञ्जलि -निर्दिष्ट नियम साधना के प्रायः सभी फलों की चर्चा यहाँ समान रूप से हुई है । साथ ही योगीजनों के साथ हृदय संवाद और उन पर पूर्ण विश्वास की चर्चा हरिभद्र सूरि के अनुभव वर्णन में नवीन है। जो उनकी सूक्ष्म दृष्टि और अनुभव की ओर इंगित करती है ।
यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है कि हरिभद्र सूरि के अनुसार मित्रा और तारा दृष्टियाँ साधना के मार्ग में चलने वाले योगो के मन की प्राथमिक दो स्थितियाँ हैं जिनकी प्राप्ति उनके अनुसार क्रमशः यम और नियमों के पालन करने से होती है । इससे यह भी लगता है कि हरिभद्र सूरि यम और नियमों को साधना के क्रम में क्रमशः अपनाये जाने वाले दो प्राथमिक सोपान के रूप में स्वीकार करते हैं। जबकि पतञ्जलि इन दोनों का प्रथम निर्देश करते हुए भी इन्हें प्रथम द्वितीय
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
KNY
www.jainelibrary.org