Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
View full book text
________________
139
यात्रा के क्रम में उसके शरीर द्वारा सम्पन्न होने में न फंसता है न उद्विग्न होता है, बल्कि आप्त काम वाले कर्म संकल्प विकल्प के अभाव में बन्धन के की भाँति सर्वत्र अनासक्त और निष्काम बना रहता कारण नहीं बनते । और साधक यदि भावातीत है।24 दत्तात्रेय के अनुसार केवल कुम्भक की सिद्धि अवस्था में विद्यमान है तो वे हो कर्म निर्वाण प्रदान के प्रारम्भावस्था में ही योगी का शरीर कामदेव कराने वाले भी हो जाते हैं।
की भाँति सुन्दर हो जाता है, और उसके रूप पर । साधक की इस चतर्थ अवस्था की प्राप्ति प्राणा- मोहित होकर कामिनियाँ उसके साथ संगम की याम साधना के फलस्वरूप होती है। प्राणायाम कामना करती है । हरिभद्र सूरि न योगी की इस साधना के फल के रूप में योगसूत्रकार पतञ्जलि ने मनः अवस्था को कान्ता दृष्टि कहा है। उनके अनुयद्यपि प्रकाश के आवरण का क्षय और धारणा की सार यह अवस्था धारणा की साधना से प्राप्त योग्यता का उत्पन्न होना ही स्वीकार किया है. और होती है। प्रकाश के आवरण-क्षय होने पर बोध की वह अष्टांग योग का सातवाँ अंग ध्यान है । इसकी स्थिति स्वीकार की जा सकती है जिसे आचार्य साधना में सफलता मिलने पर हरिभद्रसूरि के हरिभद्र सूरि ने असम्मोह कहा है। किन्तु इस प्रसंग अनुसार चित्त में न केवल एकाग्रता आती है बल्कि में दत्तात्रेय योगशास्त्र का वह कथन स्मरणीय है धर्मध्यान में वह लीन रहने लगता है । तत्वबोध के जहाँ प्राणायाम की उत्तर अवस्था केवल कुम्भक साथ सत्य में प्रवृत्ति एवं काम पर पूर्ण विजय इस के सिद्ध होने पर योगी के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं अवस्था में योगी में विद्यमान रहती है अर्थात् कामरह जाता यह स्वीकार किया गया है। साथ ही यह विषयक भावना और कामनाओं का किंचिन्मात्र भी माना गया है कि प्राणायाम के सिद्ध होने पर भी उदय उस अवस्था में योगी के हृदय में नहीं साधक योगी जीवन्मुक्त हो जाता है ।
होता। इसके अतिरिक्त ध्यान के फलस्वरूप अन्तर् ___ आचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार योगी की आनन्द की अनुभूति और पूर्ण शान्ति की अनुभूति पंचम मानसिक अवस्था वह होती है. जब तमो- इस अवस्था में होती है। चित्त की इस अवस्था को ग्रन्थि का भेदन हो जाता है, फलस्वरूप उसकी हरिभद्रसूरि ने प्रभादृष्टि नाम दिया है। इस समस्त चर्याएँ शिशु की क्रीड़ा मात्र रहती हैं, और अवस्था में दिव्य ज्ञान तादात्म्य भाव से चित्त में उसके सभी कर्म धर्मविषयक बाधा को दूर करने निरन्तर विद्यमान रहता है इसलिए इसे प्रभादृष्टि वाले ही हुआ करते हैं । इस प्रसंग में श्रीमद्भगवद् नाम दिया गया है।
गीता में योगीराज कृष्ण के धर्म संस्थापनार्थाय योगी के मन की सर्वोच्च अवस्था समस्त आसंग o सम्भवामि युगे युगे ।"23 वचन तुलनीय है । मन की से अलग रहकर समाधिनिष्ठ रहने की है। समाधिAS इस स्थिति को स्थिरादृष्टि कहा जाता है। और निष्ठ होने के कारण इस अवस्था में पहुँचने पर
यह हरिभद्र सूरि के अनुसार प्रत्याहार की साधना उसे किन्हीं लौकिक आचार के पालन की अपेक्षा से प्राप्त होती है।
नहीं रहती। पूर्वकृतकृत्यता और धर्म संन्यास इस all आचार्य हरिभद्र सूरि ने योगी के मन की छठी अवस्था की मुख्य विशेषता है । जीवनकाल में यह स्थिति वह मानी है जब वह अपनी कमनीयता के योगी ज्ञान कैवल्य अवस्था में रहता है अर्थात् अद्वय कारण सर्वजन प्रिय ही नहीं सर्वजन काम्य हो जाता भाव की अनुभूति उसे सभी काल में बनी रहती है। है। असंख्य स्त्रीरत्न भूता कामिनियाँ उसकी ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इस त्रिपुटी का भेद उसके | कामना करती हैं किन्तु वह स्थितप्रज्ञ माया प्रपंच मानस से पूर्णतः मिट जाता है। इसे ही उपनिषदों |२३८
तताय
ण्ड : धर्म तथा दर्शन
RCH 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private
Personal Use Only
www.jainelibrary.org