Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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पदार्थ शब्द की व्यापक परिभाषा के अनुसार तो प्रत्यय भी पदार्थ की सीमा से परे नहीं है । अपितु दोनों परम एवं चरम सत्य रूप गम्य तक पहुँचने की यात्रा के क्रमिक आयाम हैं, क्योंकि पदार्थ के स्वरूप का अनुशीलन तथा विश्लेषण किये बिना प्रत्यय की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इस दृष्टि से विज्ञान और दर्शन परस्पर सहयोगी तथा सम्पूरक हैं। विज्ञान का कार्य, जो वस्तु जैसी है, उसके यथातथ्य स्वरूप का विश्लेषण है, किन्तु दर्शन उस वस्तु के स्वरूप का बाह्यावरण बेधकर आन्तरिक तत्व का उद्घाटन कर चरम यथार्थ की प्राप्ति का उपाय बताता है । विज्ञान 'क्या' का उत्तर देता है, तो दर्शन 'क्यों' और 'कैसे' का समा
धान ।
आज के अतिविकासवादी युग का विज्ञान अभी तक पदार्थ जगत् के ही सम्यक् तथा आत्यतिक सत्य (तथ्य ) के अनुसन्धान तथा विश्लेषण में सफल नहीं हो सका है, जिसका प्रमाण है नित्यपरिवर्तनशील वैज्ञानिक सिद्धान्त । जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन एक वैज्ञानिक ने किया उसी को असिद्ध कर अन्य सिद्धान्त का प्रतिपादन दूसरे वैज्ञानिक ने कर दिया । खण्डन- मण्डन की यह परम्परा भी वर्तमान चिन्तन की देन नहीं है । सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे महर्षियों ने, विचारकों ने इस परम्परा का सूत्रपात किया था । यह भारतीय शिक्षा
मौलिक पद्धति भी थी, और चिन्तन का दृष्टिकोण भी । परन्तु भारतीय तथा पाश्चात्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण में यह अन्तर अवश्य था कि पाश्चात्य आधुनिक विज्ञान में एक सिद्धान्त कालान्तर में असिद्ध होकर नये सिद्धान्त को जन्म देता है तथा वह अन्तिम सिद्धान्त ही सर्वमान्य होता है, जबकि दार्शनिक सिद्धान्त अपने आप में कभी असिद्ध तथा अमान्य नहीं होते, उन्हें मानने वाले किसी भी काल में हो सकते हैं । अतः वैज्ञानिक सिद्धान्तों की परिवर्तनशील प्रकृति का तर्क बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वस्तुतः सिद्धान्त
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व्यवस्था के अपरिवर्तनीय नियम तथा परिवर्तन के आधार होते हैं ।
मूल सिद्धान्तों के निर्धारण में भारतीय विज्ञान के प्रतिपादक वेद, वेदान्त, आस्तिक तथा नास्तिक दर्शन तथा अन्य शास्त्रों ने श्रद्धापरक तर्क द्वारा पदार्थ और प्रत्यय दोनों के स्वरूप की व्याख्या की । वेदों में विश्वास रखने वाले आस्तिक दर्शनों में व्याख्यात्मक जटिलता नास्तिक दर्शनों की अपेक्षा अधिक थी । नास्तिक दर्शनों में जैन दर्शन वस्तुनिष्ठ विश्लेषण तथा संश्लेषण दोनों ही दृष्टियों से जनसामान्य के यथार्थं विषयक दृष्टिकोण के अधिक निकट था, अपि च, इसकी व्याख्याएँ अधिक स्पष्ट तथा वैज्ञानिक थीं । यद्यपि जैन दर्शन के बीज ई० पू० ५००-६०० के लगभग पड़ चुके थे, और विक्रम की प्रथम शताब्दी तक उनका अंकुरण भी हो चुका था । छठी शताब्दी तक वैचारिक प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में न्याय, बौद्ध तथा जैन दर्शन प्रबल प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में अपने-अपने सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा में लगे थे । यद्यपि न्यायदर्शन की वैज्ञानिकता भी कम नहीं थी, तथापि जैनदर्शन अपने आचार तथा व्यावहारिक पक्ष की प्रबलता के कारण तथ्य को अधिक वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत कर सका । आधुनिक विज्ञान का प्रारम्भ तो चतुर्दश शताब्दी के पश्चात् हुआ ।
जैनदर्शन का चिन्तन तथा अभिव्यक्ति मूर्त तथा अमूर्त, स्थूल तथा सूक्ष्म, भौतिक तथा अभौतिक सत्ताओं का जिस प्रकार समन्वय करता है, वह निश्चय ही यह मानने के लिए उत्साहित करता है कि जैनदर्शन विज्ञान के आधारभूत घटकों में से एक है। न्यायदर्शन की ही भाँति जैनदर्शन भी उस प्रत्येक घटक को पदार्थ स्वीकार करता है जो सत्तावान् है, ज्ञेय है तथा अभिधेय है । पदार्थ को बाह्य तथा सत् मानने वाले जैन दार्शनिक पदार्थ-ग्रहण के विषय में दो धारणाएँ व्यक्त करते हैं । प्रथम के अनुसार किसी पदार्थ के गुणों तथा विशेषताओं को पदार्थ से अपृथक रूप से ग्रहण किया जा सकता है।
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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