Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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आकृष्ट होकर वह जीव के साथ बन्ध जाता है । इस प्रकार जैनदर्शन में कर्म को सिर्फ क्रियाअच्छे बुरे कार्य इतना ही नहीं किन्तु जीव के कर्मों
निमित्त से जो पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर उसके साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, वे पुद्गल परमाणु भी कर्म कहलाते हैं ।
संसार के सभी प्राणियों में अनेक प्रकार की विषमताएँ और विविधताएँ दिखलाई देती हैं । इसके कारण के रूप में सभी आत्मवादी दर्शनों ने कर्म सिद्धान्त को माना है । इतना ही नहीं अनात्मवादी बौद्धदर्शन में कर्म सिद्धान्त को मानने के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा है कि - " सभी जीव अपने कर्मों से ही फल भोग करते हैं सभी जीव अपने कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियों में उत्पन्न होते हैं, अपना कर्म
अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, कर्म से ही ऊँचे और नीचे हुए हैं ।" (मिलिंद प्रश्न पृष्ठ ८०-८१)
इसी तरह ईश्वरवादी भी प्रायः इसमें एकमत है कि
'करम प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस करहि तो तस फल चाखा ।। "
प्राणी जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है—यही कर्मसिद्धान्त का आशय है । अंग्रेजी में कहा है
"As you sow so you reap."
उपर्युक्त प्रकार से कर्म - सिद्धान्त के बारे में ईश्वरवादियों और अनीश्वरवादियों, आत्मवादियों और अनात्मवादियों में मतैक्य होने पर भी कर्म के स्वरूप और उसके फलदान के सम्बन्ध में मौलिक मतभेद हैं ।
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अब हम कर्म के फलदान के सम्बन्ध में देखेंगे । प्रायः सभी आस्तिकवादी दार्शनिकों ने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार करके उसकी बध्यमान, सत्
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और उदय ये तीन अवस्थाएँ मानी हैं । इनके नामों में अन्तर भी हो सकता है। लेकिन कर्म के बन्ध, उदय व सत्ता के विषय में किसी प्रकार का विवाद नहीं है । लेकिन विवाद है कर्म के स्वयं जीव द्वारा फल भोगने में या दूसरे के द्वारा भोग कराये जाने में, जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व में, उसके सदात्मक रूप से बने रहने के विषय में ।
सांख्य के सिवाय प्रायः सभी वैदिक दर्शन किसी न किसी रूप से आत्मा को ही कर्म का कर्ता और उसके फल का भोक्ता मानते हैं किन्तु सांख्य भोक्ता तो पुरुष को मानता है और कर्ता प्रधान प्रकृति को कहता है । इस प्रकार कुछ तत्वचिन्तकों का मंतव्य है कि जीव कर्म करने में तो स्वतन्त्र है लेकिन उसका फलभोग ईश्वर द्वारा कराया जाता है अर्थात् जीव अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र है - इस तरह कर्म फल देने की निर्णायक शक्ति ईश्वर है, उसके निर्णय के अनुसार जीव कर्मफल का भोग करता है ।
जैसा कि महाभारत में लिखा है
"अज्ञोजन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वस्रमेव वा ।। "
अर्थात् अज्ञ प्राणी अपने सुख और दुःख का स्वामी नहीं है । ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह स्वर्ग अथवा नरक में जाता है ।
भगवद्गीता में भी लिखा है- 'लभते च ततः कामान् मयैव विहितान हितान् ।' मैं अर्थात् ईश्वर जिसका निश्चय कर देता है, वही इच्छित फल मनुष्य को मिलता है ।
बौद्ध दर्शन ईश्वर को कर्मभोग कराने में सहायक नहीं मानता किन्तु वह जीव को त्रिकाल स्थायी तत्व न मानकर क्षणिक मानता है ।
उक्त दृष्टियाँ एकांगी हैं क्योंकि कृतकृत्य ईश्वर द्वारा सृष्टि में हस्तक्षेप करने से उसकी स्वतन्त्रता
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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