Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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पहले पति-पत्नी भावना की डोरी से आजीवन इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है बँधने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे । दोनों को विश्वास जो मानव हृदय की असीम कामनाओं को सीमित रहता था कि वे इसी घर में आजीवन साथ-साथ करने की क्षमता रखता है, उसकी दृष्टि को रहेंगे । दोनों का सुख-दुख एक होता था। उनकी व्यापक बनाता है, मन में उदारता, सहिष्णुता एवं इच्छाओं की धुरी 'स्व' न होकर 'परिवार' थी। प्रेम की भावना का विकास करता है। वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने के कोई भी समाज धर्महीन होकर स्थिर स्थित बदले. अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों नहीं रह सकता। समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा की इच्छाओं की पूति में सहायक बनना अधिक समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम एवं विश्वास का अच्छा समझते थे। आज की चेतना क्षणिक, भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक है संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होकर रह धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। धर्म का अर्थ हैगई है। इस कारण व्यक्ति अपने में ही सिमटता 'धन धारणे'=धारण करना । जिन्दगी में जो जा रहा है। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला धारण करना चाहिए-वही धर्म है। हमें जिन भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए वही अनुभव कर रहा है।
धर्म है। भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल मन की कामनाओं को नियन्त्रित किये बिना चेतना को हमें आस्था प्रदान करनी है। निराश समाज रचना सम्भव नहीं है । जिन्दगी में संयम एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की की लगाम आवश्यक है । मशाल थमानी है। परम्परागत मूल्यों को तोड़ कामनाओं के नियन्त्रण की शक्ति या तो धर्म दिया गया है। उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया में है या शासन की कठोर व्यवस्या में । धर्म का जा सकता क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक अनुशासन 'आत्मानुशासन' होता है । व्यक्ति अपने हो गये हैं। परम्परागत मूल्यों की विकृतियों को पर स्वयं शासन करता है। शासन का अनुशासन नष्ट कर देना ही इच्छा है। हमें नये युग को नये हमारे ऊपर 'पर' का नियन्त्रण होता है । दूसरों के जीवन मूल्य प्रदान करने हैं। इस युग में बौद्धिक द्वारा अनुशासित होने में हम विवशता का अनुभव संकट एवं उलझनें पैदा हुई हैं । हमें समाधान का करते हैं, परतन्त्रता का बोध करते हैं, घुटन की रास्ता ढूढ़ना है।
प्रतीति करते हैं। __ आज विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है। मार्स ने धर्म की अवहेलना की है । वास्तव में लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं । लक्ष्य- मार्क्स ने मध्ययुगीन धर्म के बाह्य आडम्बरों का विहीन होकर दौड़ने से जिन्दगी की मंजिल नहीं विरोध किया है। जिस समय मार्क्स ने धर्म के मिलती।
बारे में चिन्तन किया उस समय उसके चारों ओर _ वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति धर्म का पाखण्ड भरा रूप था। मार्क्स ने इसी को का हमने संग्रह किया है उसका उपयोग किस धर्म का पर्याय मान लिया। प्रकार हो, गति का नियोजन किस प्रकार हो- वास्तव में धर्म तो वह पवित्र अनुष्ठान है यह आज के युग की जटिल समस्या है। इसके जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर तत्त्व है जिससे व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ देखना होगा।
कर पाता है। धर्म दिखावा नहीं, प्रदर्शन नहीं,
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तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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