Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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आधुनिक विज्ञान इस विषय पर मौन है क्योंकि शेष गुण अवश्य होंगे । यह संभव है कि हमारी अभी इस प्रकार के उपकरण निर्मित नहीं हुए हैं जो इन्द्रियाँ इन्हें लक्षित न कर सकें किन्तु आधुनिक किसी पुद्गल पदार्थ पर विचारों एवं भावों का वैज्ञानिक उपकरण शेष गुणों की उपस्थिति लक्षित प्रभाव लक्षित कर सके । झूठ पकड़ने वाली मशीनों कर सकते हैं। पद्गल में अनन्त शक्ति हो की खोज इस दिशा में एक छोटा-सा कदम हो कि विज्ञान द्वारा सिद्ध की जा चुकी है । पुद्गल में की सकता है।
संकोच एवं विस्तार होता रहता है। सूक्ष्म CT
परिणमन एवं अवगाहन शक्ति के कारण विज्ञान ने संसार के समस्त पदार्थों को मुख्यतः तान भागों में विभाजित किया है-ठोस. द्रव और परमाणु एव स्कन्ध सूक्ष्म रूप में परिणत हो गैस । इन तीनों में आपस में परिवर्तन होता रहता
जाते हैं। है। आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि आचार्य उमास्वाति द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र, SC पदार्थ ऊर्जा रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता द्वितीय अध्याय के सूत्र नं० ३६ के अनुसार शरीर है। परमाण भट्रियों से विद्य त उत्पादन-प्रक्रिया पाँच प्रकार का होता है-औदारिक, वैक्रियिक, इसका उदाहरण है । जैन सिद्धान्त के अनुसार ठोस, आहारक, तेजस् एवं कार्मण । कार्मण शरीर सूक्ष्म द्रव, गैस एवं ऊर्जा पुद्गल के ही विभिन्न पर्याय हैं है तथा इन्द्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता और इन पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । सूर्य हैं । पुद्गल वर्गणाओं में अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्गणा की प्रकाश ऊर्जा से पथ्वी के पेड़-पौधों को पोषण' कार्मण वर्गणा के नाम से जानी जाती है । इसमें 800 मिलता है । यह ऊर्जा का ठोस पर्याय में परिवर्तन जीव द्रव्य का पुद्गल परमाणु के साथ संयोग होता का उदाहरण है।
है। इस संयोग की विशेषता यह है कि यह संयुक्त । पुद्गल में मूलतः चार गुण होते हैं-स्पर्श, रस, यह संयोग नहीं होता है किन्तु संसारी जीव को यह
. होकर भी पृथक्-पृथक् रहता है । मुक्त जीव को गंध एवं रूप अथवा वर्ण। जैनदर्शन में वर्ण
संयोग क्षण-प्रतिक्षण होता रहता है। जिस प्रकार मुख्यतः पाँच प्रकार का होता है-लाल, पीला, एक चम्बकीय छड लोहे के छोटे कणों को अपनी नीला, कृष्ण (काला) एवं श्वेत । वर्ण पटल में सात
ओर आकर्षित करती है उसी प्रकार जीव द्रव्य रंग होते हैं जो कि क्रमशः कासनी, नीला, हरा,
(आत्मा) क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत पीला, नारंगी एवं लाल हैं । इसमें श्वेत एवं श्याम
होकर कर्मों से प्रदूषित हो जाती है । जीव द्रव्य ा रंग नहीं हैं। किन्तु श्वेत रंग उपर्युक्त सात रंगों के
एवं पुद्गल द्रव्य में बंध का मख्य कारण जीव का मिश्रण से बनता है तथा कृष्ण रंग श्वेत रंग की
अपना भावनात्मक परिणमन एवं पदगल प्रक्रिया अनुपस्थिति दर्शाता है। जैन दर्शन में श्वेत एवं
है। आत्मा जब कर्म द्रव्य के सम्पर्क में आती है तो श्याम वर्ण चाइन्द्रिय की अपेक्षा से हैं । जैन दर्शन ।
वहाँ संगलन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इसके वर्ण के अनन्त भेद मानता है जो कि वैज्ञानिक दृष्टि फलस्वरूप नई स्थिति निर्मित होती है। इसे कार्मण से लाल रंग से कासनी रंग तक के विभिन्न तरंग वर्गणा करते हैं। जैन दर्शन में कर्म केवल संस्कार IN परिणाम भी अनन्त हैं । अतएव वंज्ञानिक-दृष्टि में ही नहीं है किन्त वस्तभत पदगल पदार्थ है । राग, भी वर्ण के अनन्त भेद हैं।
द्वेष से युक्त जीव की मानसिक, वाचनिक एवं विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि किसी शारीरिक क्रियाओं के साथ कार्मण वर्गणाएं जीव में भी पुद्गल में उपर्युक्त चार में से कम से कम कोई आती हैं और जो उसके राग-द्वष का निमित्त एक गुण भी विद्यमान है तो उसमें अप्रकट रूप से पाकर जीव से बंध जाती हैं और आगे चलकर
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तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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