Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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है तब हमारे मन में घटवृत्ति उत्पन्न होती है यदि इस घटवृत्ति का सन्धान बोध से होता है तो यह वृत्तमा हो जाती है । इसका तात्पर्य यह है कि जब घटवृत्ति प्रमाणित हो जाती है और उसके विषय घट को हम यथार्थ पदार्थ मान लेते हैं । घट घटवृत्ति का फलव्याप्य है, वह घट-वृत्ति का फलितार्थ है | यह फलितार्थ वृत्ति से भिन्न एक वस्तु है । घट-वृत्ति की प्रामाणिकता से प्रायः घट की यथार्थता मान ली जाती है, किन्तु यह लोकमत है । प्रमा के लक्षण द्वारा घटवृत्ति का प्रमात्व तो सिद्ध होता है किन्तु घट की यथार्थता नहीं सिद्ध होती, क्योंकि घट में बोध-व्याप्यत्व नहीं है । घटवृत्ति में बोध-व्याप्यत्व है, अतः वह प्रमा है किन्तु घट में बोध व्याप्यत्व न होने के कारण वह अप्रमा की कोटि में आ जाता है । यही कारण है कि घट के स्वरूप, घट की भूततत्त्व आदि को लेकर वैज्ञा - निकों में विवाद उठते रहते 1 घट मृण्मय है। किन्तु मृतिका क्या है ? उसके घटक क्या हैं ? उन घटकों के घटक क्या हैं ? इस अनुसन्धान परम्परा में अवस्था आ जाती है । इसमें कहीं स्वेच्छा से विराम कर दिया जाता है और एक अभ्युपगम या कल्पना बना ली जाती है । उसी के आधार पर हम कहते हैं कि घट या घट का कोई अन्तर्तत्त्व यथार्थ पदार्थ है । वस्तुतः यह यथार्थ पदार्थ - तथाकथित अभ्युपगम-अधीन या कल्पना - कल्पित है इसीलिए आधुनिक विज्ञान दर्शन में माना जाता है कि सभी तथ्य सिद्धांत वारक हैं । वे किसी सिद्धांत पर अवलम्बित हैं और उसी में ओत-प्रोत हैं । इस अर्थ में कहा जा सकता है कि जो फलव्याप्य वृत्ति है वह भी अन्ततोगत्वा फल - व्याप्य नहीं है प्रत्युत धारावाहिक ज्ञान के अन्तर्भूत होने के कारण वृत्तिव्याप्य ही है परन्तु यह अवांतर प्रश्न है । सामान्यतः वृत्ति-व्याप्यत्व और फल - व्याप्यत्व में अन्तर किया जाता है ।
इस प्रकार वृत्ति-व्याप्यता को केन्द्र में रखकर मा की परिभाषा की गई है । यद्यपि यह परिभाषा मूलतः अद्वैत वेदान्त के अनुकूल है जिसके अनुसार जागतिक वस्तुएँ केवल साक्षिमात्र हैं तथापि तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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इसका समर्थन आधुनिक विज्ञान दर्शन तथा तर्कशास्त्र से भी होता है। प्रकाश्य - प्रकाशक सम्बन्ध ही सत् है ।
'वीचितरंगन्याय' से वह इसी सत् से अविनाभूत है । सत् ही सार है । उसकी वृत्तियों का सार उनकी धारावाहिकता मात्र है ।
पुनश्च बोध वृत्ति रहित नहीं हो सकता। जो लोग वृत्तिशून्यता या वृत्ति निरोध को बोध का लक्षण मानते हैं, उनका मत अस्पष्ट तथा असंगत है । बोध सदैव वृत्ति-व्याप्य रहता है । इसके लिए चेतना के केन्द्र जैसे मन, चित्त, अहंकार बुद्धि या पुरुष या ईश्वर की अपेक्षा रहती है । किन्तु बोध इन सब वृत्तियों से भिन्न है । वह प्राचीन तथा नित्यसिद्ध है तथा ये वृत्तियाँ अर्वाचीन और आग - न्तुक हैं । बोध ऐसी असंख्य वृत्तियों को आत्मसात् किये रहता है और उसके लिये ये वृत्तियाँ मात्र बिन्दु की भाँति हैं जिनका कोई स्वतः अस्तित्व नहीं है । किन्तु बोध और वृत्ति का योगपद्य या सहभाव त्रमा है । वही ज्ञान है । वह विषय - विषयिभाव नहीं है, क्योंकि बोध न तो विषयी है और न वृत्ति विषय है । वह अपरोक्ष अनुभव है और निरपेक्ष सत् है इसी अर्थ में प्रमा सत् है और सत् प्रमा है । अंग्रेज दार्शनिक एफ. एच. ब्रडले इसी संदर्शन से अपने दर्शनशास्त्र का पर्यवसान करते हैं । अ वेदान्त बोध को परब्रह्म तथा सर्वाधिक अव्यभचरित वृत्ति को ईश्वर या अपरब्रह्म कहता है । बोध और वृत्ति का यह सहभाव परापर ब्रह्म का सहभाव है । इसी आधार पर एकेश्वरवाद और निरपेक्ष सद्वाद को अभिन्न माना जाना है ।
वस्तुतः प्रमा की इस नयी परिभाषा से एक प्रकार का नया दर्शनशास्त्र आरम्भ होता है जिसे संदर्शनशास्त्र कहा जा सकता है । उसमें प्राचीन सभी दार्शनिकों को प्रामाणिक अन्तर्दृष्टियों का समावेश है । मुख्यतः यह ज्ञान के बोध- पक्ष और वृत्ति-पक्ष तथा उनके सम्बन्ध को प्रामाणिकता के सन्दर्भ में प्रस्तुत करता है ।
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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