Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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हैं। यह स्थिति गति की लगभग वही अवस्थिति दर्शनों की भांति ही गुण तथा क्रियावान् होना द्रव्य - बतलाती है, जो 'संवर' तथा 'निर्जरा' की है। का लक्षण है, यह विज्ञान स्वीकार करता है।
गति के आत्यन्तिक क्षय के प्रश्न पर विज्ञान मूलतः यह द्रव्य दो प्रकार का है-अस्तिकाय तथा 6) मौन है । जिस प्रकार गति स्वयं सापेक्ष होते हुए
अनस्तिकाय । काल, तम इत्यादि अदृश्य पदार्थ पदार्थों की सापेक्षता के लिए उत्तरदायी है, वैसे ही
अनस्तिकाय तथा जीव और अजीव अरितकाय हैं, कर्म आस्रवादि पदार्थों की सापेक्ष स्थिति के लिए
बयोंकि ये दृश्य है । जीव भी बद्ध तथा मुक्त भेद से उत्तरदायी है। जीव के कर्मों का आत्यन्तिक क्षय
द्विधा है। बद्ध जीवों में एकेन्द्रिय अचर वनस्पति ही जैन मत में मोक्ष है । वैज्ञानिक गवेषणाएँ अभी
आदि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय तक इस विषय पर प्रयोग तथा निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं ।
(मनुष्य) इन चर जीवों की गणना होती है । यहाँ CY कर पायी हैं, कि अनन्त सृष्टि चक्र के प्रवाह का,
उल्लेखनीय है कि वनस्पति में जीवन का अनुसन्धान अनन्त-चेतन परमाणुओं का पर्यवसान कहीं है
आधुनिक जीव-विज्ञान की खोज समझी जाती है, अथवा नहीं। भले ही यह अप्रासंगिक तथा अप्रा
बल्कि अभी तक यह विवादास्पद विषय है; किन्तु करणिक प्रतीत हो किन्तु, चिन्तन का विषय अवश्य
लगभग २ सहस्र वर्ष पूर्व जैन दर्शन ने कितना वैज्ञाहो सकता है कि जीव के कर्मों का क्षय किस सीमा
- निक निर्णय प्रस्तत किया. इसका प्रमाण द्रव्यों का तक तथा किस रूप में होता है ? जीवों की संख्या
उक्त वर्गीकरण है। अजीव द्रव्यों के अन्तर्गत धर्म, (E) भी न्यूनाधिक होती रहती है अथवा निश्चित रहती अधम, आकाश, काल पुद्गल की गणना की गई है। oहै ? जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक जैविक तन्त्र में ।
धर्म तथा अधर्म की व्याख्या जैन दर्शन क्रमशः गति - अपने ही समान जैविक तन्त्रों को उत्पन्न करने की सहकारी कारणभूत द्रव्यविशेष तथा स्थैर्य सह
क्षमता होती है। ये जैविक तन्त्र भौतिक तन्त्र से कारी कारणभूत के रूप में करता है जो परम्परागत सम्पर्क टूटने के पश्चात् (म.यु के पश्चात) कहाँ न होकर पारिभाषिक है। एक गति है तो दूसरा | जाते हैं, वे पुनः शरीर धारण किस आधार पर स्थिति । एक प्रेरक है तो दूसरा निष्क्रिय ये अनुमान करते हैं ? क्या कोई ऐसा बिन्दु भी है, जहाँ वे द्वारा सिद्ध हैं। ये जड़ भाव हैं तथा सम्पूर्ण तत्वजैविक तन्त्र परमाणुरूप में विखण्डित हो जाते हैं ? मीमांसा को प्रभावित करते हैं। विज्ञान की भाँति यदि विज्ञान इन प्रश्नों का उत्तर दे सका, तो जैविक ही, जैन धर्माधर्म की धारणा समग्र अभिधेय को तन्त्रों की गति का विराम बिन्द जैन सम्मत (तथा गति तथा स्थिरता इन दो अवस्थाओं में विभक्त अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में भी प्रतिपादित) मोक्ष करती है। विज्ञान की शाखाओं के रूप में जिन गतिकी समस्या का वैज्ञानिक समाधान प्रस्तुत कर विज्ञान (Dynamics) अथवा गति सम्बन्धी विज्ञान सकेगा।
(Kinematics) तथा स्थितिविज्ञान (Statics) की र उक्त पाँचों पदार्थों का भोक्तृभाव से जीव तथा प्रतिष्ठा है, वे भी पदार्थों की इन दोनों प्रकार की (8)
बन्ध है। जीव तथा अवस्थाओं का ही अध्ययन अजीव जैन मत में द्रव्य हैं। द्रव्य गण तथा पर्याय न्यूटन ने गति सम्बन्धी जिन सिद्धांतों को प्रतिसे युक्त पदार्थ है। द्रव्य में रहने वाले तथा स्वयं पादित किया, उनके अनुसार पदार्थ या तो ऋजु गुण न धारण करने वाले धर्म गुण तथा द्रव्य का अथवा वक्र गति वाले होते हैं। स्थिति गति सापेक्ष १ भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में जाकर होना पर्याय कह- है। वस्तुतः यह सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च, जो निरन्तर लाता है। गुणधर्म नित्य तथा पर्याय अनित्य है। प्रत्येक क्षण में आविर्भाव और लय को प्राप्त होता द्रव्य की यह परिभाषा भी वैज्ञानिक है। न्यायादि है, गति तथा स्थिति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
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तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Great
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