Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जय तथा मन, वचन एवं काय की प्रवृत्तियों का रस परित्याग, विविक्त शय्यासन एवं काय-क्लेश त्याग । कहीं-कहीं पर भिन्न-भिन्न तरह के संयम -इस प्रकार 'बाह्य' तप के छः भेद हैं। प्रायके १७ प्रकारों का उल्लेख भी मिलता है, यथा'- श्चिन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और पांच स्थावर और चार त्रस-इन नव के विषय में ध्यान-ये छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं। इस तरह संयम, प्रेक्ष्य संयम, उपेक्ष्य संयम, अपद्ध य संयम, तप के कुल १२ भेद हो जाते हैं। इन बारहों प्रकार प्रमृज्य संयम, काय संयम, वाक संयम. मनःसंयम के तपों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैऔर उपकरण संयम । डॉ० सागरमल जैन के अनु- अनशन-सब प्रकार के आहारों का परित्याग सार जैन और गीता के आचार-दर्शन संयम के करना अनशन तप कहलाता है। इसके दो भेद हैं प्रत्यय को मुक्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। -इत्वरिक और यावत्कथित । संयम का अर्थ है-मर्यादित या नियमपूर्वक जीवन, अवमौदर्य-अपनी भूख से कम आहार ग्रहण संयम और मानव-जीवन ऐसे घुले-मिले तथ्य हैं कि करना अवमौदर्य तप या ऊनोदरी तप कहलाता उनसे परे सुव्यवस्थित जीवन की कल्पना नहीं की है। जा सकती।
वृति-परिसंख्यान -विविध वस्तुओं में कम ___यों सभी मर्यादाओं का पालन करना संयम लालच रखना वृत्ति-परिसंख्यान तप कहलाता है। नहीं है लेकिन मर्यादाओं का पालन स्वेच्छा से रसपरित्याग-घतादि विशेष पौष्टिक एवं मद्यादि किया जाता है तो उनके पीछे अव्यक्तरूप में संयम विकारी वस्तुओं का त्याग तथा मिष्टादि रसों का का भाव निहित रहता है। सामान्यतया वे ही मर्या- नियमन करना रस परित्याग तप कहलाता है। दाए संयम कहलाती हैं जिनके द्वारा व्यक्ति आत्म- विविक्त-शय्यासन-बाधा रहित एकान्त स्थान विकास और परमसाध्य की प्राप्ति करता है।
में वास करना विविक्त-शय्यासन तप कहलाता (७) उत्तम तप-मलिन वृत्तियों को निमल है। करने के उद्देश्य से अपेक्षित शक्ति की साधना के
कायक्लेश-ठण्ड, गर्मी, वर्षा आदि बाधाओं लिये किया जाने वाला आत्मदमन उत्तम तप है। को सहना एवं विविध आसनादि द्वारा कष्ट सहन दूसरे शब्दों में कर्मक्षय के लिये तथा समचित करने को काय-क्लेश तप कहा जाता है। आध्यात्मिक बल की साधना के लिए जीव को जिन प्रायश्चित्त-दोष की विशुद्धि के लिए जो क्रिया उपायों का सहारा लेना पड़ता है-वे सब तप की जाती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इसके निम्नकहलाते हैं। इसके मुख्यतः दो भेद हैं-(१) बाह्य लिखित नो भेद किये हैं-(१) आलोचन (२) प्रतितप और (२) आभ्यन्तर तप । पुनः इन दोनों क्रमण (३) तदुभय (४) विवेक (५)व्युत्सर्ग (६) तप प्रकार के तपों के ६, ६ प्रकार बताये गये हैं, (७) छेद (८) परिहार (8) उपस्थापन ।11 यथा
विनय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार की अनशनावमौदर्यव तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त
साधना में विशेष रूप से प्रवृत्त होना विनय तप कहशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ।"
लाता है। इसके भी यथाक्रम से चार भेद है-ज्ञान,
दर्शन, चारित्र और उपचार ।। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्याना
वयावृत्य-सत्पुरुषों के दुःख-दों को दूर न्युत्त रम ।10
करने के लिए सेवा आदि करना वैयावृत्य तप कह___ अर्थात्---अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति-परिसंख्यान, लाता है। इसके भी दस भेद बतलाए गए हैं१६६
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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