Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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कुशाग्रबुद्धि के कारण जिस किसी भी ग्रंथ का आप पारायण करतीं, वह स्मृति पटल पर अंकित ल हो जाता । आपकी स्मरण शक्ति बहुत ही तेज थी । संस्कृत भाषा पर तो आपका इतना अधिकार हो
गया था कि आप धारा प्रवाह संस्कृत बोल लेतीं। इसके साथ ही आपकी लेखन कला भी सुन्दर थी। उस समय आपने जैन दर्शन और साहित्य पर उच्चकोटि के निबन्ध भी लिखे थे। बेकन ने ठीक ही कहा है
रीडिंग मेक्स ए फुल मेन स्पीकिंग ए परफेक्ट मेन
राइटिंग एन एग्जेक्ट मेन । -अध्ययन मानव को पूर्ण बनाता है. अभिव्यक्ति उसे परिपूर्णता देती है, और लेखन उसे प्रामाणिकता प्रदान करता है। तीनों ही दृष्टियों से आपका विकास निरन्तर प्रगतिशील था।
संवत् २००६ में भी आपका वर्षावास अध्ययनार्थ ब्यावर में था। सबसे सुखद बात यह थी कि इस वर्ष आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी म० का चातुर्मास भी ब्यावर में ही था। चातुर्मास काल में आचार्यश्री के दर्शन, प्रवचन एवं शास्त्र श्रवण का अच्छा लाभ मिला। आचार्यश्री के अगाध आगमिक ज्ञान को सुनकर हृदय आनन्दविभोर हो जाया करता था।
ब्यावर का अध्ययन समाप्त कर ग्रामानुग्राम धर्मध्वजा फहराते हुए आप उदयपुर संभाग में विचरण कर रहे थे।
महासती श्री मदनकुवरजी का स्वर्गवास महासती श्री मदनकुवर जी म. सा. अनेक वर्षों से उदयपुर में स्थिरवास थीं। उनकी सेवा 1 में महासती श्री सोहनकुवर जी म. सा० तथा अन्य महासतियाँजी रहती थीं। वि० सं० २००७ में संलेखना सहित महासती श्री मदनकुवरजी म. सा. का स्वर्गवास हो गया। संलेखना, संथारा, अनशन आदि के सम्बन्ध में कई लोगों के मन में मिथ्या धारणा है । इसलिए यह आवश्यक है कि संलेखना के सम्बन्ध में कुछ विचार कर लिया जाये, जिससे वास्तविकता स्पष्ट हो सके ।
संलेखना-संलेखना और संथारा के अन्तर को उपाचार्य श्री देवेन्द्रमनिजी शास्त्री ने इस प्रकार स्पष्ट किया है- “संथारा ग्रहण करने के पूर्व साधक संलेखना करता है। संलेखना संथारे के पूर्व ना की भूमिका है । संलेखना के पश्चात् जो संथारा किया जाता है उसमें अधिक निर्मलता और विशुद्धता
होती है।
है तो
संलेखना का महत्व प्रतिपादित करते हुए आपने लिखा है-"श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई है। श्वेताम्बर परम्परा में 'संलेखना' शब्द का प्रयोग हुआ दिगम्बर परम्परा में 'सल्लेखना' शब्द का । संलेखना व्रतराज है। जीवन की अन्तिम बेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है । जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दल-दल में फंस जाये तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहाँ तक लिखा है- ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता है।"
१. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ६६७ । २. जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृष्ठ ६६७-६६८ ।
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द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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