Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । से मुक्ति होती है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई || जो सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ सत्ता नहीं है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह ब्रह्म 'य एक जानाति स सर्व जानाति ।
ही है, अतः यह कथन समीचीन है कि एक को यः सर्व जानाति स एकं जानाति ॥ जान लेने से सब-कुछ जान लिया जाता है। जैन
आचार्यों ने उपनिषद् के इस रहस्य को समझा था, इसी बात को इस प्रकार से भी प्रकट किया
अतः उन्होंने एक भाव के दर्शन से सभी भावों के गया है
दर्शन की बात कही है। एको भावः सर्वथा येन दृष्टः । सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ।।
__ "यथा सोय केन मृत्पिण्डेन, सर्व मृत्मयं विज्ञातं सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः ।
स्याद् [वाचारम्म्भणं, विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव ।
सत्यम् ।" एको भावः सर्वथा तेन दृष्टाः ।।
–छान्दोग्योपनिषद् ६/१/११ जिसने एक भाव को सब प्रकार से देख लिया
घट, शराब आदि उसके विकार है, उसने सभी भावों को सब प्रकार से देख लिया और मत्तिकापिण्ड के ज्ञान से मिट्टी के सभी है और जिसने सभी भावों को सब प्रकार से देख
विकारों का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि विकार तो Ke लिया है, उसने एक भाव को सब प्रकार से देख वाणी के आश्रयभत नाम ही हैं, सत्य तो केवल 5 लिया है।
मिट्टी है, उसी प्रकार यह समझना चाहिए कि ब्रह्म जैन-आचार्यों का यह विवेचन-एक के ज्ञान से ही सत्य है। सबका ज्ञान-नितांत महत्वपूर्ण है। इससे यह प्रकट
अन्य सभी वस्तुएँ नाममात्र हैं। होता है कि जैन-आचार्यों की दृष्टि में एक सत्ता के सभी विलास हैं। जो तत्त्व एक में विद्यमान है वही ,
उपनिषदें कहती हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ अन्य पदार्थों में भी विद्यमान है । इस प्रकार एक के ज्ञान से सभी का ज्ञान सम्भव होता है। वेदान्त
'इदं सर्वं यदयमात्मा'-(बृहदारण्यक २/४/६), दर्शन में भी यह तत्त्व प्रकाशित किया गया है।
_ 'ब्रह्म वेदं सर्वम्' (मु० २/२/१२), वेदान्त मानता है कि एक के अतिरिक्त दूसरा नहीं
'आत्मवेदं सर्वम्' (छा० ७/२५/२) इत्यादि। है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह उस परम सत्ता अद्वतदर्शन में जिस प्रकार एक तत्व के ज्ञान से का ही विलास है।
सभी वस्तुओं के ज्ञान की बात कही गई है, उसी || उपनिषद् कहती है कि एक के ज्ञान से सबका प्रकार जैन-दर्शन में भी एक भाव के ज्ञान से सभी 9 ज्ञान हो जाता है, अतः मुख्य बात यह है कि एक भावों के ज्ञान की बात कही गई है। यह महत्वपूर्ण का ज्ञान प्राप्त किया जाय । जिस एक को जान लेने बात है कि किस प्रकार आचार्य अपने दर्शनों के से सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है, उसी को आधार पर चिंतन करते हुए परम तत्त्व का साक्षाजानना चाहिए और वह तत्त्व है-ब्रह्म । ब्रह्म-ज्ञान त्कार करते हैं। १. 'एकेन मृत्पिण्डे न परमार्थतो भेदात्मना विज्ञातेन सर्वं मन्मयं घटशरोवोदञ्चनादिकं मृदात्मकत्वाविशेषाद्
विज्ञातं भवति । यतो वाचारम्भणं विकारो नामधेयंवाचैव केवलमस्तीत्यारभ्यते-विकारो घट: शराव उदञ्चनञ्चेति ।'
-ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य -२/१/१४
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 660
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