Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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जीवनोत्थान का समान अवसर प्राप्त हो, समान अधिकार प्राप्त हो, यह श्रमण संस्कृति की समानता SI का महान उद्घोष है।
श्रमण संस्कृति प्रारम्भ से ही पुरुष के मिथ्या दर्प को ललकारती रही है। उसने प्राणीमात्र को , आत्म-सखा, बन्धु एवं मित्र दृष्टि से देखने की प्रेरणा दी है । नारी को उसने पुरुष की अर्धागिनी ही नहीं । Oकिन्तु उसकी जननी, जीवन सहायिका एवं उपदेशिका के रूप में भी देखा है । चिन्तकों के कुछ क्षुद्र हृदयों
ने जहां धर्म-साधना, शास्त्र-स्वाध्याय एवं मोक्ष का अधिकार अपने अधीन रखने के लिये प्रकल्पित शास्त्रों GB का निर्माण किया, वहाँ श्रमण संस्कृति एक स्वर से उसे पुरुष के समान धर्मसाधिका के सिंहासन पर आसीन कर नारी के देव-दुर्लभ गौरव का उद्गान करती आई है।
यहाँ श्रमण संस्कृति को विशिष्ट रूप से उल्लेखित किया गया है। इसलिये हमारे लिये 'श्रमण' शब्द को सार्थ समझना आवश्यक हो जाता है।
उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी शास्त्री ने अपनी पुस्तक 'जैन नोतिशास्त्र : एक परिशीलन' में 'श्रमण' शब्द की विशिष्टताएँ के अन्तर्गत श्रमण की उत्पत्ति पर विचार करते हुए उसके अर्थ को सुन्दर रीति से समझाया है । उन्हीं के अनुसार
'जैनाचार्यों ने 'श्रमण' शब्द को संस्कृत के 'श्रम' धातु से व्युत्पन्न माना है। उनके विचार से श्रम का अभिप्राय है-व्यक्ति अपना विकास स्वयं परिश्रम द्वारा करता है। सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है ।'
विद्वान आचार्यों की यह मान्यता भगवान महावीर के उस उत्तर पर आधारित प्रतीत होती है, जो भगवान ने देवराज इन्द्र को उस समय दिया था जब उसने भगवान की सेवा में रहकर कष्ट-निवारण की अनुमति चाही थी।
प्राकृत भाषा के 'समण' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'श्रमण' संस्कृत विद्वानों ने किया है, किन्तु प्राकृत भाषा के 'समण' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-(१) सम, (२) श्रम और (३) शम । इन तीनों में ही समण अथवा श्रमण शब्द की विशिष्टता का रहस्य छिपा हुआ है । (१) सम-सभी को, प्राणीमात्र को अपने (अपनी आत्मा के) समान मानना । (अप्पसमं मनिज्ज छप्पिकाए)-छह काया (संसार के सभी सूक्ष्म और स्थूल प्राणी) के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझे ।
(२) शम-इसका अभिप्राय है शान्ति । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का शमन (RL करना, सदा अपनी आत्मा को उपशम भाव की शांत-प्रशांत गंगा में निमज्जित करते रहना।
__ जैन परम्परा में तो उवसमसारं खु सामण्णं-श्रमणत्व का सार ही उपशम है, कहकर उपशमशांति का महत्व प्रदर्शित किया गया है।
(३) श्रम-मनुष्य स्वयं ही अपना, अपनी आत्मा का विकास करता है, अपने सुख-दुःख का स्वयं ही कर्ता है और स्वयं ही उसका भोक्ता है।
जैन ग्रन्थों में श्रमण के लिए कहा गया है-सममणइ तेण सो सभणो।
'सममण इ' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-सममणती त्ति तुल्यं वर्तते । यतस्तेनासो समण इति । जो सब जीवों के प्रति समान भाव रखता है, वह 'श्रमण' है । इसीलिए कहा गया है कि श्रमण सुमना होता है, पाप मना नहीं । (जैन नीतिशास्त्र पृष्ठ २१३--३१६) ।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन C . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थOOG Por private Percenallee Only
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