Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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पुत्ररत्न का जन्म - जब नजर की आयु दो वर्ष की थी तब माता सोहनबाई की पावन कुक्षि से द्वितीय संतान के रूप में पुत्ररत्न का जन्म हुआ । पुत्र जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया गया। परिवार की खुशियाँ द्विगुणित हो गईं । बालक बहुत ही पुण्यवान था । गौरवर्ण, लम्बे कान, घुटने तक लम्बे हाथ, दीप्त उन्नत ललाट, तेजोमय मुखमण्डल एवं पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सौम्य था । बालक का नाम रखा गया पूनमचन्द | जो वास्तव में पूनम का चाँद ही था । श्री गणेशमलजी एवं सोहनबाई ने पुत्ररत्न को पाकर अपने भाग्य को सराहा और अपने आपको धन्य समझने लगे । अब उन्हें किसी प्रकार का कोई अभाव न रहा । वे अपने परिवार सहित आनन्द रस में सराबोर थे । घर का वातावरण आनन्द से उल्लसित था, सभी सुखानुभव कर रहे थे ।
वज्राघात - परिवर्तन जगत का शाश्वत नियम है। दिन के बाद रात रात के बाद दिन, सुख के बाद दुःख व दुःख के बाद सुख नियति का यह चक्र निरन्तर चलता रहता है । इस परिवार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ । बड़े ही सुखपूर्वक हर्षोल्लास वातावरण में इस परिवार के दिन व्यतीत हो रहे थे । बालिका 'नजर' साढ़े तीन वर्ष की थी, तभी गणेशमलजी पुत्र, पुत्री तथा पत्नी को संसार सागर में असहाय छोड़कर अचानक इस लोक से महाप्रयाण कर गये । परिवार पर यह वज्राघात था । परिवार के मुखिया की मृत्यु से परिवार में शून्य उत्पन्न हो गया ।
नारी का सर्वसुख उसका सभी कुछ उसके सौभाग्य पर निर्भर है । यदि वह सौभाग्यवती बनी रही तो इस लोक को स्वर्ग मानती है । चाँद को सुधाकर कहती है और दुःख में भी फूली फूली घूमती फिरती अपने कर्तव्य का निर्वाह करती रहती है । यदि उसका सुहाग बाग हरा-भरा और फला-फूला न रहा तो उसके लिए अमृत तुल्य संसार भी इतना निस्सार हो जाता है कि वह एक पल भी इसमें रहना स्वीकार नहीं करती । योगियों से भी अधिक वह इस संसार को असार / निःसार समझने लगती है । वह जल्दी से जल्दी इससे छुटकारा चाहती है ।
भारतीय परिवार को स्वर्गीय सुखों की क्रीड़ास्थली बनाने वाली आर्य कुलांगना का अनेक रूपों में से माता और पत्नी का रूप सर्वापेक्षा श्रेष्ठ और महिमामण्डित है । किन्तु जिस समय हिन्दू परिवार की विधवा पर दृष्टि पड़ती है, तो उस समय सारी कामनाओं का भस्म रमाकर बैठी एक तरुण तपस्विनी ही ध्यान में आती है । उसके चारों ओर सर्वेन्द्रिय सुखों की चिताग्नि धधकती रहती है । उसकी लालसाओं की लोल लहरें किसी किनारे तक नहीं पहुँचने पातीं । उसकी अभिलाषाओं की अल्हड़ आँधी हृदय में हाहाकार मचाकर उद्धत बवण्डर की भाँति उसके मस्तिष्क में चढ़ जाती है । सहनशीलता का कैसा निष्ठुर निदर्शन है । सहिष्णुता की फैली गगनाकार सीमा है । आत्म-त्याग का कैसा ज्वलन्त आदर्श है । सामाजिक संध्या का कैसा भयंकर चित्र है ।
गणेश जी की अनायास मृत्यु से सोहनबाई पर वज्र टूट पड़ा। चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देने लगा। पति के स्वर्गवास के पश्चात् ससुराल पक्ष का कोई भी सहारा नहीं मिला । यह भी एक विडम्बना ही है कि जब तक नारी सौभाग्यवती रहती है, तब तक उसे सब मानते हैं, आदर देते हैं, सिर आँखों पर रखते हैं । और पति की मृत्यु होते ही उसके सभी अपने उससे मुँह मोड़ लेते हैं । जो रात-दिन उसका ध्यान रखते हैं वे भी उसके पास फटकते तक नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी उसके शत्रु हो गये हैं ।
द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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