Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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मानव कर्तव्य है, धर्म का पालन करना और इस पकड़ जाता है। क्रोधी व्यक्ति सामने आने वाले धर्म की साधना, अहिंसा, संयम और तपश्चर्या प्रतिपक्षी को चुनौती देने लगता है। द्वारा होती है। जिस प्राणी का मन सदा धर्म में शास्त्रकारों ने क्रोध के चार प्रकारों का उल्लेख | निरत रहता है, उनको तो देवता भी नमस्कार किया है, पहला वह जो उत्पत्ति से अन्त तक ज्यों करते हैं।
का त्यों बना रहे। क्रोध की दूसरी अवस्था एक धर्म से बढ़कर दुःखों से मुक्ति दिलाने के लिए वर्ष तक एक-सी रहती है। तीसरे प्रकार का क्रोध उसको कोई शरण देने वाला इस जग में नहीं है, चार मास पर्यन्त एक-सा रहता है। चार माह शास्त्र का कथन है
पश्चात् क्रोध की प्रकृति समाप्त हो जाती है। जरा मरण वेगेणं. वज्झमाणाण पाणिणं । क्रोधी व्यक्ति के मन में महान परिवर्तन आ जाता धम्मो दीवो, पइट्ठाय गई सरणमुत्तमं ॥
है। चौथे प्रकार के क्रोध की स्थिति केवल पन्द्रह उत्तराध्ययन सूत्र २३/६८ दिन तक ही रहती है। यह पानी की लकीर का-सा
क्रोध प्रायः उत्तम व्यक्तियों में ही देखने को अर्थात जरा और मरण के प्रवाह में डूबते हुए मिलता है। प्राणियों की रक्षा के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा
सरल स्वभावी महासती श्री कुसुमवती जी की का आधार है, गति है और उत्तम शरण है।
दीक्षा स्वर्ण-जयन्ती के पावन प्रसंग पर वीरप्रभु से धर्मो बन्धश्च मित्रश्च धर्मोऽयं गुरुरंगिनाम्। दीर्घाय की कामना करता हूँ। तस्माद् धर्मे मतिं धत्स्व स्वर्मोक्ष सुखदायिनि । -आदिपुराण १०/१०६
मेरा प्रणाम अर्थात् धर्म ही मनुष्य का सच्चा बन्धु है, मित्र
-नेमीचन्द जैन, मेडता सिटी का है और गुरु है। इसलिए स्वर्ग और मोक्ष दोनों की
जैनधर्म त्यागप्रधान धर्म है, दान शील तप भाव प्राप्ति कराने वाले धर्म में अपनी बुद्धि को स्थिर
स्थर का धर्म है, जैन साधु साध्वीगण अपना सम्पूर्ण रखो।
जीवन इसी तप त्याग के लिए अर्पित करते हैं। सम्वत्सरी पर्व पर क्रोध विषय पर प्रवचन दें परम विदुषी महासती श्री कुसुमवती जी महाराज तो क्रोध की व्याख्या करते हुए कहती हैं- जिन शासन को उद्योतित करने वाली महान साध्वी
कोहं माणं च मायां च, लोभं च पाववडढणं । रत्न है। वर्म चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो डियमप्पणो
आपके २०४१ के मेडता सिटी के चातुर्मास में -दशवकालिक ८/३७ मुझे भी सत्संग प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हआ, अर्थात्-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों
लम्बे समय तक सम्पर्क में रहकर मैंने पाया कि आप कषाय पाप की वृद्धि करने वाले हैं, अतः अपनी पी
भीतर बाहर से एकदम सरल हैं, आपकी वाणी में आत्मा का हित चाहने वाला साधक इनका परि
ओज है, तेज है। सिंहगर्जनावत् आपके प्रवचन के त्याग कर दे।
प्रखर व ओजस्वी शब्द श्रोताओं के हृदय पर सीधा
प्रभाव डालते हैं। आप संयमनिष्ठ साधिका हैं । मनुष्य को जब क्रोध आता है तो उसके शरीर दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के इस पावन अवसर पर शतशः में क्रोध के सारे चिह्न प्रकट हो जाते हैं। ओठों में नमन करता हुआ यही शुभ कामनाएँ अर्पित करता
फड़फड़ाहट आरम्भ हो जाती है, आँखें लाल हो हूँ कि आप शतायु बनें और समाज को सदा मार्गGOL जाती हैं और नसों में रक्त का प्रवाह तीव्रगति दर्शन प्रदान करते रहें।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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