Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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महासती श्री कुसुमवतीजी संयम व ज्ञान की अनुपम ज्योति
- उत्तमचन्द डागा
(संयुक्त मंत्री श्री वर्धमान स्था० जैन श्रावक संघ, जयपुर)
परम विदुषी साध्वी रत्न श्री कुसुमवती जी म० सा० साधना की अनुपम ज्योति हैं । आपका प्रत्येक क्षण साधना के क्षणों में गुजरता रहा है। वे विराट व्यक्तित्व की तेजस्वी साध्वी रत्न हैं । आपका जीवन निर्मल प्रभात की तरह तेजस्वी रहा है । आप श्री शान्त निर्मल स्वभावी व गम्भीरता से साधना पथ की ओर सदा अग्रसर रहने वाली साध्वी रत्न हैं । आपके जीवन का कण-कण क्षणक्षण साधनामय, तपोमय पथ पर आगे बढ़ता रहा है। आप स्वभाव से विनम्र, शान्त, निर्मल स्वभाव व मधुरभाषी हैं। आपश्री के ज्ञान की आपके प्रवचनों में स्पष्ट झलक मिलती है । इसीलिए आपकी वाणी में मधुरता स्वभावतः पैदा हो जाती है ।
आपका विद्याध्ययन इतना विशाल है कि उसे कहाँ तक लिखा जावे, समझ नहीं पाता । बडे-बड़े शास्त्र आपको कण्ठस्थ याद हैं। आज भी आपका प्रत्येक क्षण कर्म के क्षेत्र पर साहित्य से लगाकर साधना तक गतिशील है । आपके सम्पर्क में जो भी आया उसे कुछ-न-कुछ ज्ञान आपने दिया है । सच्चा साधक भी वही है जो दूसरों को अमृत बाँटता है । आपश्री का व्यवहार से प्रस्फुटित 'अनुकम्पा' का निर्झर सांसारिक ताप से त्रस्त जन-जन को शीतलता प्रदान करता है। आपकी स्वाध्याय व ध्यान में रुचि के अलावा जप- साधना में विशेष रुचि रही है । जब भी समय मिलता आप जाप में ध्यान में संलग्न हो जाती और भक्त जनों को भी जप की महिमा बताकर जप साधना के पथ पर आकृष्ट करती रहती हैं ।
आपने अपने जीवन के साथ अपनी शिष्याओं
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना
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को नई चेतना-नया चिन्तन देकर संवारा है । पारस के स्पर्श से ही लोहा सोना बन जाता है उसी प्रकार आपने अपनी शिष्याओं को ज्ञान-साधना का अखण्ड पाठ कर ज्योतिर्मय साधक के रूप में प्रज्ज्वलित कर दिया है । वह दिन दूर नहीं जब साधकों के आकाश पर ये साध्वियां अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर सकेंगी। साध्वी श्री चारित्रप्रभा जी, श्री दर्शनप्रभाजी जैसी योग्य शिष्याएँ आज आपके नाम के अनुरूप ही अपने साधना पथ को उज्ज्वलकर रही हैं ।
कहावत है रत्नों के रत्न निकलते हैं। आपश्री की पौत्र शिष्या साध्वी दर्शनप्रभाजी ने उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी की सम्प्रदाय में एवं समस्त साध्वी समुदाय में सर्वप्रथम पी-एच०डी० की डिग्री प्राप्त करके आपके गौरव को चार चांद लगाए हैं। इस पुनीत पावन प्रसंग पर मैं हृदय के अन्तःकरण से इस दिव्य तेजस्वी साध्वीरत्न को वन्दन - अभिवन्दन करता हूँ ।
बगिया में - एक कुसुम खिला
- पुरुषोत्तम 'पल्लव' उदयपुर अपनेपन की महक बिखेरी तुमने इस बगिया में इस चन्दा को अपना माना
मगर पराया वह निकला पूनम को बढ़ चढ़कर आया मावस को वह न पिघला
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दीप जलाकर किया उजाला, तुमने इस रतिया में आज यहाँ और कल वहाँ यह चलता फिरता डेरा था पर्वत से सपने थे अपने यह मन मरुस्थल मेरा था
कुसुम ने अमृत-धारा दो जीवन की नदिया में संध्या मोहक लगती हमको से कई सुन्दर प्रभातों सावन भादों में खो जाते रिमझिम उन बरसातों से
नैया की पतवार तुम्हीं हो, जग की इस दरिया में
साध्वीरत्न ग्रन्थ
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