Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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परवाह न करके दूसरों को सुख पहुँचाना दायों के चातुर्मास थे। पूरा चातुर्मास सबसे मिलनाचाहती हैं।
जुलना रहा । क्षमा पर्व के दिन आप सभी सन्तों ४. नम्रता :
एवं सतियों के ठिकाने शिष्याओं के साथ पधारे ___ आपश्री की नम्रता का प्रतीक एक संस्मरण मुझे
और सबसे क्षमा-याचना की । आपकी यह प्रवृत्ति
देखकर तेरापन्थी सन्त इतने प्रभावित हुए कि याद आ रहा है । सन् १९७६ में जब आपका चार्तुमस मेरी जन्मभूमि जम्मू में था, एक दिन लगभग
उन्होंने अपने विहार के समय व्याख्यान में फरमाया चार बजे मैं दर्शनार्थ स्थानक में पहुंची। गुरुणी
कि स्थानकवासी परम्परा की साध्वी श्री कुसुमवती " जी श्री कसमवती जी म. सा. अपनी दो शिष्या
. जी म. सा. में इतनी विद्वत्ता एवं इतनी बड़ी दीक्षा
पर्याय होने पर भी जो सरलता, नम्रता एवं विनय श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. एवं श्री दिव्यप्रभा जी म. सा. एवं दो पौत्र शिष्या श्री दर्शनप्रभा जी
हमने देखा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । आप छोटे से म. सा. एवं श्री विनयप्रभा जी म. सा. के साथ
छोटा कार्य भी करने के लिए तत्पर रहती हैं। । विराजमान थीं। मैंने सबको वन्दन किया। आप ५. दयालुता एवं करुणा :
श्री के मुखारविन्द से मंगलपाठ श्रवण किया और करुणा तो आप में कूट-कूट कर भरी पड़ी है। वापस चल दी। अभी जीनों तक ही पहुँची थी कि कोई भी निर्धन व्यक्ति आपके सन्मुख आ जाए, पीछे से आवाज आई, 'ओ बहन जी' ! मैंने सोचा उसको देखकर एकदम द्रवित हो जाते हैं। किसी इतनी मधुर एवं ऊँची भाषा में मुझे किसने तरह से उसकी कमियों की पूर्ति करवाने का प्रयास पुकारा ? परन्तु जब मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो करते हैं । दुःखी व्यक्ति के दुःख को बड़े प्रेम से
देखती ही रह गई। एक चालीस वर्ष की दीक्षिता सुनते हैं। A साध्वी, और परम विदुषी होने पर भी मुझे इतनी मेरी गुरुणीजी श्री चारित्रप्रभा जी म. सा. - ऊँची भाषा में पुकार रही हैं ? एक गृहस्थी को? फरमाया करते हैं कि 'मुझे याद नहीं आता कि । मैं उसी समय चरणों में पहुंची तो आपने फरमाया गुरुणीजी श्री कुसुमवती जी म. सा. ने हमको कभी कि यह पुस्तक अमुक श्राविका जी को देनी है। डांट-फटकार दी हो या क्रोध में पुकारा हो । क्या आप पहुँचा देंगी? मैंने कहा, 'अवश्य' पहुँचा- गुरुणीजी तो बस एक अमृत कुम्भ हैं। इस समय ऊँगी । जिनकी वाणी में इतना विनय है, उनके मन आपकी तीन शिष्यायें तथा सात पौत्र शिष्यायें हैं। में और काया में कम नहीं हो सकता। कहते हैं- सबके प्रति आपके दिल में पूर्ण दया एवं करुणा 'वाणी' मन का दर्पण होता है।
आपने कभी छोटे बच्चे को भी तुकारा नहीं ६ स्वाध्याय प्रिय : दिया । जिस शहर या गाँव में आपका चातुर्मास होता है वहां पर अन्य किसी भी सम्प्रदाय की
जम्मू चातुर्मास में मैं जब भी दर्शनार्थ जाती साध्वियां या सन्त हों उन सबसे संवत्सरी के अगले
थी, आप स्वाध्याय में तल्लीन ही मिलते थे। मैं दिन अपनी शिष्या मण्डली के साथ क्षमा याचना
सामने बैठकर आपके मुखकमल को निहारती रहती करके आते हैं। वैसे सबसे मिलते रहना तथा धर्म
थी। मुझे बहुत आनन्द आता था। आपको जब
यह पता चलता था कि शान्ता (रुचिका) सामने ४ चर्चा करते रहना आपका सहज स्वभाव है।
बैठी है तो आप शास्त्र वांचन उच्च स्वर से करने सद् १९८२ का आपका चातुर्मास ठाणा सात लग जाते । शायद इसलिए कि शास्त्र के कुछ शब्द से ब्यावर में हुआ। वहाँ पर और भी कई सम्प्र- इसके कानों तक पहुँचकर उन्हें पवित्र बना दें।
प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चना S B साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ