Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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और उदय की अपेक्षा उत्पन्न होने वाले संख्यातीत प्रश्नों का सयुक्तिक विशद, विस्तृत स्पष्टीकरण जैन कर्मसाहित्य में किया गया है।
जैन कर्मशास्त्र में कर्म की जिन विविध अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, उनका सामान्यतया बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उपशमन, निधत्ति, निकाचन और अबाध इन ते हैं। इस वर्गीकरण में कर्म की शक्ति के साथ आत्मा की क्षमता का पूर्णरूपेण स्पष्टीकरण किया गया है। जिससे वह जन्म-मरण के चक्र का भेदन कर अपने स्वरूप को प्राप्त कर उसमें स्थित हो जाती है ।
भेदों में वर्गीकरण
जैनदर्शन की उक्त कर्मविषयक संक्षिप्त रूपरेखा के आधार पर वर्णित विषय के बारे में विचार आत्मशक्ति के विकास का क्रम आत्मा की विशुद्धता के कारण क्रम-क्रम से कर्मों की बन्ध, सत्ता और उदयावस्था की हीनता का दिग्दर्शन कराया है ।
अब 'कर्मस्तव' ( द्वितीय कर्मग्रन्थ) में करते हैं। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से और उस विकासपथ पर बढ़ती हुई
द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना का उद्देश्य 'कर्मविपाक' नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में ग्रन्थकार ने कर्म की मूल तथा उत्तरप्रकृतियों एवं उनकी बन्ध, उदय- उदीरणा, सत्ता योग्य संख्या का संकेत किया है और इस द्वितीय कर्मग्रन्थ में उन प्रकृतियों की बन्ध, उदय - उदीरणा, सत्ता के लिए जीव की योग्यता का वर्णन किया गया है।
विषय वर्णन की शैली
संसारी जीव अनन्त हैं । अतः किसी एक व्यक्ति के आधार में उन सत्र की वन्धादि सम्बन्धी योग्यता का दिग्दर्शन कराया जाना सम्भव