Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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विचार और सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन करके भारतीयदर्शन को महान देन दी जो अपने आप में अनूठी और अद्वितीय है । जैनदर्शन की कर्मतत्व सम्बन्धी रूपरेखा
जैनदर्शन में कर्म का लक्षण, उसके भेद, प्रभेद आदि का दिग्दर्शन कराते हुए प्रत्येक कर्म की बन्ध, सत्ता और उदय - यह तीन अवस्थायें मानी हैं। जेनेतर दर्शनों में भी कर्म की इन अवस्थाओं का वर्णन मिलता है । उनमें बन्ध को 'क्रियमाण', सत्ता को 'मंत्रित' और उदय को 'प्रारब्ध' कहा है | परन्तु जैनदर्शन में जानावरणीय आदि आठ कर्मों और उनके प्रभेदों के द्वारा संसारी आत्मा का अनुभवगम्य विभिन्न अवस्थाओं का जैसा स्पष्ट व सरल विवेचन किया है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है । पातंजलदर्शन में भी कर्म के जाति, आयु और भोग - यह तीन तरह के विपाक बनलागे हैं, लेकिन जैनदर्शन के कर्म सम्वन्धी विचारों के सामने वह वर्णन अस्पष्ट और अकिंचित्कर प्रतीत होता है ।
जैनदर्शन में आत्मा और कर्म का लक्षण स्पष्ट करते हुए आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध कैसे होता है ? उसके कारण क्या हैं? किस कारण से कर्म में कैसी शक्ति उत्पन्न हो रही है ? आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध किस समय तक रहता है, उसकी कम से कम और अधिक से अधिक कितनी काल मर्यादा है ? कर्म कितने समय तक फल देने में समर्थ रहता है ? कर्म के फल देने का समय बदला भी जा सकता है या नहीं; और यदि बदला भी जा सकता है तो उसके लिए कैसे आत्म- परिणाम आवश्यक हैं ? कर्मशक्तियों की तीव्रता को मन्दता में और मन्दता को तीव्रता में परिणमित करने वाले कौन से आत्मपरिणाम हैं ? स्वभावतः शुद्ध आत्मा भी कर्म के प्रभाव से किस-किस प्रकार मलिन है और कर्म के आवरणों से आवृत होने पर भी आत्मा अपने स्वभाव से च्युत क्यों नहीं होती ? इत्यादि कर्मों के बन्ध, सत्ता