Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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के लिए अज्ञान एवं राग-द्वेषमूलक समाजविहित शिष्टकर्म भी अधर्ममूलक पाप कर्मों की तरह त्याज्य हैं और उनका उच्छेद होना आवश्यक है।
जब निवर्तकधर्मवादियों ने कर्म का उच्छेद और मोक्ष को मुख्य पुरुषार्थ मान लिया तब कर्म के उच्छेदक और मोक्ष के जनक कारणों को निश्चित करना आवश्यक हो गया। अतएव कर्मप्रवृत्ति अज्ञान एवं राग-दुषजनित होने से उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति का मुख्य उपाय अज्ञान-विरोधी सम्यग्ज्ञान और गग-द्वेष-विरोधी समभाव (सम्यक्चारित्र), संपम को साधन माना तथा स्वाध्याय, तप, ध्यान आदि उपायों को सम्यग्ज्ञान और संयम के सहयोगी रूप में स्वीकार किया।
निवर्तकधर्मवादियों ने जब मोक्ष के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के साधनों के बारे में गहरा विचार किया तब उसके साथ हो कर्मतत्त्व का चिन्तन भी करना पड़ा। उन्होंने कर्म, उसके भेद तथा भेदों की परिभाषाएँ भी निश्चित की । कार्य-कारण की दृष्टि से कर्मों का वर्गीकरण किया। उनकी फल देने की शक्ति एवं काल-मर्यादा आदि का विवेचन किया । कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध, आत्मा की शक्ति आदि का भी विचार एवं इससे सम्बन्धित और भी जो कुछ विचार आवश्यक थे, सभी का क्रमबद्ध व्यवस्थित विवेचन किया। इस प्रकार निवर्तकधर्मवादियों के कर्म-विषयक व्यवस्थित चिन्तन मे एक अच्छे कर्मशास्त्र का निर्माण हो गया। निश्तकधर्मवादियों में विचारभिन्नताएँ ___कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में निवर्तकधर्मवादियों का सामान्य मन्तव्य यह है कि किसी न किसी प्रकार कर्मों के मूल को नष्ट करके उस अवस्था को प्राप्त करना, जिससे पुनः जन्म-मरण के चक्र में न आना