Book Title: Karmagrantha Part 2
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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( १८ ) मान्यता के आधारभत करतन्त्र का मानना आराक है । इस प्रकार की मान्यता वाले पुनर्जन्मवादी कहलाते हैं । कर्मसिद्धान्त को मान्यता : दो विचारधाराएँ
इन कर्मसिद्धान्तवादियों में दो विचारधाराएँ दृष्टिगोचर होती हैं। एक विचारधारा यह है कि कर्म के फलस्वरूप जन्मान्तर और परलोक अवश्य है, किन्तु श्रेष्ठलोक और श्रेष्ठजन्म के लिए कर्म भी श्रेष्ठ होना चाहिए । श्रेष्ठलोक के रूप में उनकी कल्पना स्वर्ग तक ही सीमित है । वे धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों को मानने वाले हैं। उनकी दृष्टि में मोक्ष का पुरुषार्थ रूप में कोई स्थान नहीं है । इसलिए इनको त्रिपुरुषार्थवादी कहा जाता है ।
इन त्रिपुरुषार्थवादी विचारकों का मन्तव्य संक्षेप में इस प्रकार है कि धर्म- शुभकर्म का फल स्वर्ग और अधर्म --अशुभकर्म का फल नरक आदि है । यह धर्माधर्म ही पुण्य-पाप या अदृष्ट कहलाते हैं और इन्हीं के द्वारा जन्म-जन्मान्तर, स्वर्ग-नरक की प्राप्तिरूप चक्र चलता रहता है । जिसका उच्छेद शक्य नहीं है, किन्तु इतना ही सम्भव है कि यदि उत्तमलोक और उत्तमसुख पाना है तो धर्म पुरुषार्थ करो। अधर्म-पाप हेय है और धर्म -पुण्य उपादेय है। धर्म और अधर्म के रूप में इनकी मान्यता है कि समाजमान्य शिष्ट आचरण धर्म और निन्द्य आचरण अधर्म है । अतएव सामाजिक सुव्यवस्था के लिए शिष्ट आचरण करना चाहिए। इस विचारधारा की प्रवर्तकधर्म के नाम से प्रसिद्धि हुई । जहाँ भी प्रवर्तकधर्म का उल्लेख किया जाता है, वह इन त्रिपुरुषार्थवादी चिन्तकों के मन्तव्य का सूचक है। ब्राह्मण-मार्ग, मीमांसक या कर्मकाण्डी के नाम से यह त्रिपुरुषार्थवादी प्रसिद्ध हैं।
इसके विपरीत कर्मतत्त्ववादी दूसरे समर्थकों का मंतव्य उक्त