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यथावसरं चितयिष्यामः अतः प्रकृतमनुश्रियते इति कहाँपर क्या प्रकृत है, इहांपर यह प्रकृत है कि ग्रन्थकारकों अपने ग्रंथ लिखणेमें छादमस्तिक भावसें या बुद्धिमांद्यतादिकसें अथवा छापेका दोष या दृष्टि दोष वगेरा दोषोंकी संभावनाका मिछामि दुक्कडं देना चाहिये एसा शिष्टजन समाचरण है, यह यहां प्रकृत है और सहायकका सहायकपणाभी उपगारित्व भावसें स्मरण जरूर करणाचाहिये, इसलिये चरित्रकार इसीका अनुसरण करते हैं नमोस्तु श्रीश्रमणसंघभट्टारकाय नमोस्तु श्री चतुर्विधसंघायेति अहो सज्जनो मैनें जो यह समर्थमहान पुरुषका लेशमात्र यथामति गुणवर्णनरूपचरित्र आपलोकोंके समक्ष उपस्थित किया है, सो आपलोक सावधानहोकर उपयोग देकर पढ़ें, और श्रीगुरुभक्तिरूप लाभ हासिल करें और इस पुस्तकमें या इसकी प्रस्ताव - नामे जो मेने जादा कम जिनाज्ञाविरुद्ध शास्त्रविरुद्ध संप्रदाय विरुद्ध अर्थ लिखा होवे, उसका श्रीसंघसमक्ष मिछामिदुक्कडं होवो, और जो मेने इस पुस्तकमे श्रीगुरुगुणवर्णन रूप सदर्थ लिखा है, सो अवश्यहि ग्रहणकरणा, और छापादोष दृष्टिदोष वगेरा भया होवे - सो सुधारकर पढ़ें, और छादमस्तिक भावसें भूल वगेरा रहनेका संभव है, सो सज्जन विद्वान पुरुषोंको मेरेपर कृपाकर सुधारलेना, और कोइतरहकी गलती अर्थवगेराकी त्रुटीरहगई होवे तो पूरण कर समाधानकरणा और मिथ्या अर्थका त्रिकरणयोगसें मिछामिदुक्कडं है, यह सज्जन विद्वानोसें नम्र प्रार्थना है, और यह पुस्तक लिखणेकी छपाकी प्रेरणा तथा सहायता वगेरा शहर दक्षिण हैदरावाद निवासी रा० रा० माननीय रायवाहादुर दीवानबाहादुर राजाबाहादुर श्री
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