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भूमिका करता है-रत्नमाला, दीपमाला, रूपमाला नाम्नी लासिकाएँ हाव, भाव से मनोहर नृत्य की । झम्पा, कम्पा से आकुल अग्रसर होती, सरसता की धारा से सर्वांगों से मनोहारिणी, प्रारम्भ किये गये अभिलिखित नृत्य के अनन्तर, तरल शोभायमान होते, हाव-भाव एवं अनुभाव से पूर्ण, उत्कण्ठा उत्पन्न करने वाले, कण्ठ से निकले, निरन्तर प्रनित, प्रचुर गीत प्रपञ्चों वाली, तिलक एवं रत्नों की माला से युक्त, सुरम्य शरीर वाली, यह पात्री कैसी भली लग रही है ? गुणियो का मद तथा प्रेक्षकों की आनन्द पात्री, नवीन लयों की विधात्री, रूप लावण्य की धात्री, सुललितगात्री, शुद्ध संगीत, गुणगणमणि पात्री, केवल रूपमाला पात्री थी। जिसका मुख पूर्ण चन्द्र ही है। विधाता ने सम्पूर्ण पर्वो से अवशिष्ट, जिसे यहाँ रख दिया। इस (मुख) की कान्ति से सूखा हुआ, अमृत बिन्दु सी मानो, नासिकाग्र पर स्थित, मौक्तिक के ब्याज से शोभित हो रहा है। इन नर्तकियों के कर्ण एवं शिर पर गुथे, लटकते, मुक्ताफल के ब्याज से लगता है कि मुख चन्द्र से लावण्यामृत की बूंदे निकल पड़ी है।' (३:२४७-२५१)
अर्धनारीश्वर की वन्दना करते हुए श्रीवर अपनी नृत्य कला का ज्ञान प्रकट करता है-'यह दक्षिण पाद नर्तन की इच्छा से जहाँ पर आधार देता है, वही पर संचार संस्कार वश, वामचरण पग देना चाहता है। इस प्रकार सन्ध्या समय, जो मण्डलाकार शोभित पदकारी नृत्य करते है, वह भगवान् अर्धनारीश्वर सुखभाव प्रदान करे। (२:२)
वीणावादक: कोई केवल गाना जानता है, कोई केवल नृत्य जानता है, कोई केवल वादन जानता है, कोई केवल कवि होता है, कोई केवल गीतकार होता है, कोई केवल दार्शनिक होता है, कोई केवल संगीत एवं नत्य शास्त्र का ज्ञाता होता है, परन्तु स्वतः गायक एवं नर्तक नही होता । परन्तु श्रीवर में उक्त सभी कलायें एवं गुण विद्यमान थे। शास्त्रीय संगीत को गन्धर्व विद्या के अन्तर्गत माना जाता था। सुल्तानों के काल में शास्त्रीय संगीत प्रचलित था। श्रीवर गन्धर्व विद्या पारङ्गत था।
श्रीवर कुशल वीणावादक था। वह जिस प्रकार कण्ठ संगीत में प्रवीण था, उसी प्रकार वाद्य वादन कुशल था। वह केवल वीणा वादक ही नही था परन्तु अन्य विदेशी एवं देशी वीणा वादकों से प्रतियोगिता भी करता था। श्रीवर अपने वीणा वादन के प्रसंग मे स्वयं वर्णन करता है-खुरासान से आगत मल्ला वादक ने कूर्म वीणा वादन द्वारा महीपति का अतुल अनुग्रह प्राप्त किया (१:४:३२-३३) । म्लेच्छ वाणी में गीत कारक मल्लाज्य ने सुल्तान का उसी प्रकार अनुरंजन किया, जिस प्रकार नारद इन्द्र का । सर्व गीत विशारद एवं तुम्ब वीणा पर मैंने नवीन गीत आरम्भ कर, कौशल किया। मेरे साथ अन्य भी नृपाग्रगामी जाफराण आदि वीणा के साथ दुष्कर तुरुष्क राग गाये । सभा में हम लोगों के बारह राग के गीत गाते 'समय वीणा एवं कण्ठ से निकलते स्वर मानो प्रीति से ही एक हो गये थे। (१:४:३२-३५) सुल्तान हैदरशाह एवं हसनशाह स्वयं वीणा वादक थे। संगीतज्ञ थे-गीत गुणों का सागर खोजा अब्दुल कादिर का शिष्य मुल्ला डोदक सुल्तान हैदरशाह के वीणा वादन का गुरु था। मुल्ला डोदक से कूर्म वीणादि वाद्यों के गीत कौशल प्राप्त कर, जीवन पर्यन्त सुल्तान तन्त्रीवादन के बिना क्षण भर नही रहता था। (२:५७) सुल्तान स्वयं वीणावादकों को भी शिक्षा देता था।' (२:५८)
श्रीवर ने म्लेच्छ वीणा, तुम्ब वीणा, कूर्म वीणा, एवं मोद वीणा चार प्रकार की वीणाओं का उल्लेख किया है। इनके भेद पर यथा स्थान प्रकाश डाला गया है। श्रीवर दस तन्त्र की बीणा बनाने का उल्लेख करता है। इस वीणा की संज्ञा वह मोद वीणा से देता है-'पिता से अधिक गुणी मल्ला (मुल्ला)