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विजयार्द्ध पर्वत की गुफाओं में ले जाकर सुरक्षित रखते हैं।
इसके पश्चात् सात-सात दिनों तक क्रमश: 1. अत्यन्त शीतल क्षार जल, 2. विष, 3. धूम्र, 4. धूल, 5. वज्र, 6. जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य अग्निज्वाला की वृष्टि होती है।
इस वृष्टि के निमित्त से अवशिष्ट मनुष्य भी नष्ट हो जाते हैं तथा विष और अग्नि की वृष्टि से दग्ध पृथ्वी एक योजन नीचे तक काल के वश से चूर्ण हो जाती है।
वज्र और अग्नि की वर्षा के कारण भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्डों में क्षुद्र पर्वत, उपसमुद्र, वनखण्ड, छोटी-छोटी नदियाँ, ये-सब भस्म होकर सम्पूर्ण पृथ्वी समतल हो जाती है और सात दिन तक धूल और धुआँ से आकाश व्याप्त रहता है। यहीं पर अवसर्पिणी काल का अन्त हो जाता है।
इसके पश्चात् उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है, जिसमें विलोम-क्रम (उल्टे क्रम से) उत्तरोत्तर विकास होता जाता है। इस उत्सर्पिणी काल के छठे भाग अर्थात् उत्तम भोगभूमिरूप सुषमा-सुषमा काल के पूरे हो जाने पर कालचक्र का अन्तिम भाग पूरा हो जाता है। इस तरह एक कालचक्र समाप्त होकर आगामी कालचक्र आरम्भ हो जाता है। ऐसे अनन्त काल चक्र अब तक हो चुके हैं और भविष्य में भी अनन्त होते रहेंगे।
कालचक्र के दोनों अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी विभाग दश दश कोड़ा कोड़ी सागर के होते हैं और सम्पूर्ण कालचक्र 20 कोड़ा-कोड़ी सागर का होता है।
28 :: जैनधर्म परिचय
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