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अपने जीवन के अन्त काल में पुत्र-पुत्री रूप युगल सन्तान को जन्म देकर दिवंगत हो जाते हैं। यहाँ जन्म लेने वाले जीवों की आयु तीन पल्य, शरीर की ऊँचाई 6000 धनुष और देह स्वर्ण - वर्ण की होती है ।
यहाँ के जीव अत्यन्त अल्पाहारी होते हैं, तीन दिन के अन्तराल पर बेर के बराबर अल्पाहार से ही इनकी क्षुधा तृप्ति हो जाती है । यह काल चार कोड़ा - कोड़ी सागर का होता है ।
2. सुषमा - सुषमा - सुषमा काल की तरह यह काल भी भोग-प्रधान है। इस काल की सारी व्यवस्थाएँ सुषमा- सुषमा काल की तरह ही होती हैं, किन्तु सुषमा- सुषमा काल के आदि से उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु दो पल्य की रहती है, शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष की तथा ये दो दिन के अन्तराल पर बहेडा के बराबर अल्प- आहार ग्रहण करते हैं । इस काल में भोगोपभोग की सामग्री उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है। यह काल तीन कोड़ा कोड़ी सागर का कहा गया है।
3. सुषमा - दुःषमा - यह काल भी भोग-युग कहलाता है। इस काल की व्यवस्था भी पूर्व के दो कालों की तरह होती है, किन्तु यहाँ सुविधा एवं भोग की सामग्री पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर क्षीण होने लगती है। इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु एक पल्य की होती है, इनके शरीर की ऊँचाई भी घटकर दो हजार धनुष की रह जाती है तथा ये एक दिन के अन्तराल से आँवला के बराबर अल्प आहार ग्रहण करते हैं । यह काल धीरे-धीरे क्षीण होते हुए कर्मयुग में परिवर्तित होता जाता है । अन्त में, इस काल में कल्पवृक्षों की कमी होने से सुविधाजनक सामग्री की भी कमी होने लगती है। प्राकृतिक परिवर्तन होते हुए उस समय क्रमशः चौदह कुलकर जन्म लेते हैं। कुलकर प्राकृतिक परिवर्तन से चकित और चिन्तित मानव समूह को मार्गदर्शन देते हैं । इस काल के अन्त में मनुष्यों की आयु एक पूर्वकोटि मात्र रह जाती है तथा शरीर की ऊँचाई 500/525 धनुष तक की रह जाती है। काल पूर्ण होने पर कर्मभूमि का प्रारम्भ हो जाता है । यह काल दो कोड़ा कोड़ी सागर का होता है ।
4. दुःषमा- सुषमा – इस काल से कर्मभूमि / कर्मयुग का प्रारम्भ हो जाता है। प्राकृतिक कल्पवृक्ष आदि सम्पदाएँ प्रायः लुप्त हो जाती हैं। मनुष्यों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति / जीवन निर्वाह के लिए कृषि आदि कर्म करने पड़ते हैं। नर-नारी अब युगल रूप में जन्म नहीं लेते। चूँकि कल्पवृक्षों से अब आवश्यकता की पूर्ति होना बन्द हो गया, इसलिए मनुष्यों को प्रयास करना पड़ता है। इसी काल से विवाह आदि संस्कार प्रारम्भ हो जाते हैं और समाज व्यवस्था बनती है। यद्यपि इस काल में कर्म करने से कुछ कष्ट अवश्य होता है, फिर भी अल्प परिश्रम से ही अधिक फल की प्राप्ति होने लगती है। इस काल में प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आतीं। इसी काल में 63 शलाकामहापुरुषों का जन्म होता है, क्रमशः चौबीस तीर्थंकर जन्म लेकर धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं 1
26 :: जैनधर्म परिचय
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