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हैं और उसी के भीतर उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि की दृष्टि से भेद देखते हैं। वस्तुतः जो निश्चय काल है, वही मुख्य काल है और वह अनन्त समय वाला है। जैन दार्शनिकों ने एक और खास बात काल के सम्बन्ध में विचार की-उनके मत में वर्तमान काल सदैव एक समयवर्ती या एक समयवाची है, जबकि भूत और भविष्य दोनों अनन्तसमय वाचक हैं। यद्यपि ये तीनों व्यवहारकाल हैं, पर भूत और भविष्य का स्वरूप अनन्त समय वाला होते हुए भी वर्तना रूप का पर्याय होने के कारण मुख्य काल नहीं है।
काल के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अक्सर लोग कहते हैं-हमारा समय खराब है, हमारा भला ही नहीं हो रहा, हमारा बुरा समय आ गया और हम खिन्न होते हैं। इससे ऐसा लगता है, जैसे हम कुछ नहीं हैं, हमारे साथ जो कुछ भी घट रहा है, वह सब कुछ काल के उपादानात्मक स्वरूप के कारण घट रहा है। जैन विचारक इस मान्यता का पुरजोर खण्डन करते हैं। वे कहते हैं- काल हमारा उपादान भी नहीं, हमारा निमित्त भी नहीं, वह तो सहकारी कारण भर है। जिस प्रकार कीली कुम्भकार के चाक के घूमने में सहकारी कारण बनती है, ठीक वही स्थिति जैनों के अनुसार काल की है। काल हमारा भला-बुरा नहीं करता, भला-बुरा हमारे कर्मों से होता है।। ___ यहीं एक खास बात और है कि व्याकरण के पाणिनि आदि आचार्य कीली को अधिकरण कारक के रूप में देखते हैं और चूँकि कीली में उन्हें अधिकरणता देखनी है। इसलिए वे उसे आधार भी मान लेते हैं, जबकि जैन वैयाकरण पूज्यपाद और कातन्त्रकार आदि कीली में अधिकरणता नहीं देखते, वे उसे केवल आधार के रूप में देखते हैं। इससे खास बात ये निकलकर आती है कि जैनों का काल सहकारी कारण बनते हुए आधार के रूप में प्रस्तुत होता है -काल सहित सभी द्रव्यों के परिणमन में। और जब आधार है, तो अधिकरण भी हो सकता है, पर साक्षात् कर्ता नहीं। चूँकि सभी कारक परम्परा से कर्ता के रूप में देखे जाते हैं। इसलिए काल भी कर्ता के रूप में दिखता है, पर है नहीं। है तो वह सरकारी कारण ही। वह उपादान भी नहीं, उपादेय भी नहीं और स्वरूप विचार की दृष्टि से हेय भी नहीं।
काल-चक्र
अनादि-अनिधन स्व-निर्मित विश्व व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वाभाविक स्वरूप में है और स्वयं की परिणमन की शक्ति के अनुसार परिणमित भी होता रहता है। जीव-पुद्गलादि पदार्थ जिस प्रकार अपने चेतन व जड़ लक्षणों में विद्यमान रहते हैं व अपने-अपने लक्षणों की योग्यता के अनुसार परिणमते हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य का भी अनादि-अनन्त प्रवाह-क्रम स्वयमेव चलता रहता है। दूसरे शब्दों में, काल का प्रवाह अनन्त और अजस्र है। वह अनादिकाल से परिवर्तित होता रहा है और अनन्तकाल तक परिवर्तित होता रहेगा। कभी वह उन्नत दिखाई देता है, तो कभी
24 :: जैनधर्म परिचय
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